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________________ 'पञ्चमः सर्गः ६५ हे अनुत्तर बुद्धिवाले ! हे लक्ष्मी के संचेता ! आप अपने हाथ में शत्रुओं को तप्त करने वाला धनुष धारण करें। आप सभी राजाओं के नेत्रों के लिए नए अमृत के समान हैं। देव ! आप देखें, इस शरद् ऋतु में आप के भय से देवेन्द्र ने भी अपने इन्द्र-धनुष का संहरण कर लिया है। २१. सपदि पीतनदीरमणोदयाच्छुचितरं चितरङ्ग ! सरिज्जलम् । कलय गढपथं च तव द्विषां , गवि पदं विपदन्तकृतो भियाम ॥ हे संचित रंगवाले राजन् ! अगस्त्य तारा के सद्यः उदित होने के कारण सरिताओं का निर्मल जल तथा विपदाओं का अन्त करने वाले आपके पृथ्वीतल पर उदित होने के कारण शत्रुओं का निर्मल हृदय भय का स्थान बन गया है। २२. कलमगोपवशास्तव चक्रभृच्छुचिरमं चिरमङ्गलकारणम् । परभृतानिभृतस्वरगीतिभिः , किल यशो लयशोभनमुज्जगुः ॥ हे चक्रवर्तिन् ! कलम धान्य की रक्षा करने वाली स्त्रियाँ आपके निर्मल शोभा वाले तथा चिर मंगलकारक यश का लययुक्त सुन्दर गान, कोयल की भाँति निर्मल स्वर . वाली गीतिकाओं के माध्यम से, कर रही हैं। २३. गिर इव क्षितिराज ! तवेक्षवोऽतिमधुरा मधुराशिसितारसात् । व्यपहरन्ति मनांसि सतां मुहू , रसमया समया नगरीभुवः ॥ हे क्षितिराट् ! आप की वाणी इक्षु की तरह मधुर और शर्करा से भी अधिक मीठी है। वह रसमय (शृंगार आदि रसों से युक्त) स्वजन व्यक्तियों के मन को आकृष्ट करने वाली और नागरिक गुणों से युक्त है। २४. प्रसरतीह बने कलमोल्लसत्परिमलोऽरिमलोदयवजित !। श्वसितगन्धवहो भवदाननेप्युपवने पवनेरितवत्तया । हे वैरियों के पापोदय से वजित राजन् ! इस शरद् ऋतु में पानी में कलम से उल्लसित परिमल वाला यह श्वास-वायु पवन से प्रेरित होने के कारण उपवन में और आपके आनन में प्रसार पा रहा है। २५. इति रथाङ्गभूदुत्सवमार्तवं , कलय बन्धुरबन्धुरमालय !! बलिभुवं प्रयियासुरपि क्षणं , सदयितो दयितोरुविपक्षभीः ॥
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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