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________________ ६४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १६. शरदि पङ्कमरा न भवत्क्षया , मुमुदिरे मुदिरेभ्यविवर्द्धनात् । उपकृतापदि यस्तुदते युधे , विहितसज्जन ! सज्जन एव सः ।। हे युद्ध के लिए सज्जित महाराज ! शरद् ऋतु में मेघ की ध्वनि का विच्छेद होने के कारण पंक-समूह क्षय-रोग से ग्रस्त होकर प्रमुदित नहीं हो रहे हैं । वही सज्जन होता है जो अपने उपकारी की आपदा के समय व्यथित होता है। (पंक का उपकारी मेघ है। शरद् ऋतु में मेघ क्षीण हो जाते हैं । उनके क्षीण होने पर पंक भी क्षीण होने लगता है।) १७. तव सभेव नरेश्वर ! सुन्दरा , तरुणयाऽरुणया सुमनःश्रिया । अधिकदत्तरतिवरसंचरन् , नवनरा वनराजिरराजत ॥ .. हे नरेश्वर ! यहाँ की वनराजि आप की सभा की तरह सुशोभित हो रही है। जैसे आपकी सभा तरुण और देदीप्यमान देवता तथा पंडितों की समृद्धि से सुन्दर है, जिसमें लोगों की अत्यधिक रति है और जिसमें प्रधान तथा तरुण व्यक्तियों का संचरण है वैसे ही वह वनराजि भी तरुण और लाल फूलों की शोभा से युक्त, अधिक आनन्द देने वाली और नए तरुण व्यक्तियों के संचरण से युक्त है। १८. निववृते शिखिभिः सततोच्छलत , कलमरालमरालमतिद्विषन !। इह विलोक्य शरत्समयं घनाघनगमं नगमञ्जुकलस्वनैः ॥ हे वक्र बुद्धिवालों से प्रीति नहीं करने वाले नरेश्वर । जिसमें राजहंस सतत उछल-कूद करते हैं और जिसमें मेघ चले जाते हैं, उस शरद् ऋतु को देखकर, पर्वतों या वृक्षों को मंजुल और प्रिय केका से ध्वनित करने वाले . मयूरों ने मुंह मोड़ लिया। १६. इह भवानिव नित्यविवधिभिः, सुरभिभिः प्रसवैः प्रसवैनवैः । वन विप्रसरत्फलसन्ततिस्तरुतती रुततीववयोगणा ॥ राजन् ! शरद् ऋतु की वृक्षों की श्रेणी आप ही की भाँति है। जैसे आप तरुण पुत्रों से सुशोभित होते हैं वैसे ही यह वृक्ष-श्रेणी नित्य बढ़ने वाले नए सुगन्धित फूलों से शोभित है। इसकी फल-सन्तति सारे वनभूमि में फैल रही है और इस पर बैठे पक्षीगण तीव्र शब्दों से कलरव कर रहे हैं । २०. धनुरनुत्तरधी ! करपञ्जरे , नवसुधा वसुधाधिपचक्षुषाम् । तव भयादिव गोपतिनाहृतं , रचय ताचय ! तापकरं द्विषाम् ॥
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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