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पञ्चमः सर्गः
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राजन् ! इस ऋतु में कामी व्यक्तियों का चित्त दिन में भ्रमरों के समूह से सेवित कमलिनी की उपासना करता है और रात में बादलों से मुक्त होने के कारण विशद तथा वृक्षों में व्याप्त किरणों वाले चन्द्रमा की उपासना करता है ।
११.
जिसने नये धान्य को उत्पन्न किया है उस पानी की शक्ति क्रमशः न्यून होती जा रही है । इसलिए दोनों तटों का अन्तर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो जाता है । इस समय वह पानी नलिनी दलों के कारण मद करता हुआ दूसरों को हर्षित करता है ।
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नृप ! तनूभवति क्रमतोऽधुना, वनबलं नवलम्भितसस्यकम् स्फुट विलोकयमानतटान्तरं प्रमदयन् मदयन्नलिनीदलैः ॥
१२. विलसितं किमिहातुलसंमदर्न वृषभैर्वृषभैरववासितैः ।
बलचल ककुदेर्व्रजकानने, तव गवेन्द्र ! गवेन्द्रविनोदितैः ॥
हे गवेन्द्र ! इस शरद् ऋतु में आपके ग्वालों द्वारा प्रेरित वृषभ जो अत्यन्त हर्षित तथा शक्ति से चालित ककुदों से युक्त हैं, क्या गोकुल में जाकर क्रीडाएँ नहीं करते ?
१३.
१४.
शरद् ऋतु ने अतिविकस्वर 'काश' नामक घास का चंवर डुलाने वाली तथा अब्जदल का. छत्र करने वाली विशिष्ट संपदा के द्वारा देव सेवित चक्रवर्ती भरत को प्रमुदित किया ।
अतिविकस्वरकाशपरिस्फुरच्च मरयाऽमरयाचितसेवनम् । नृपमभूमुददब्ज दलात पत्रपरया परयार्तुरपि श्रिया ॥
१५.
सममिलेश्वर ! संप्रति दीप्यते, सकलया कलया सितरोचिषः ।
• पृथुतमप्रथया प्रतिपत्तिथेः, कमलयाऽमलया तव जन्मतः ॥
हे पृथ्वीनाथ ! आपके जन्म से पवित्र हुई लक्ष्मी प्रतिपदा के चन्द्रमा की अत्यन्त प्रख्यात सभी कलाओं के साथ दीप्त हो रही है ।
किल भवानुररीकृत उल्लसद्द्द्विनयया न ययाऽभ्युदयद्भिया । त्वमिव नैष ऋतुविनिषेव्यते, जनतया नतया कलितोत्सवम् ॥
राजन् ! जिस उल्लसित विनयवाली जनता ने भयभीत होकर आपको स्वीकार नहीं किया उसने आपकी भाँति इस शरद् ऋतु की भी उत्सुकता के साथ पर्युपासना नहीं की ।