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________________ १५० ६१. ... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् तवानुजोऽयं तनयो युगादेर्भमायमूहो भरताधिराज!।। नो चेदयं को मम सांयुगीनोऽधुना विमर्शो मम ते निदेशः ॥ 'भरताधिराज ! बाहुबली आपके अनुज हैं और ऋषभ के पुत्र हैं- इसलिए मेरा यह वितर्क है । अन्यथा यह कौन मेरा रणकुशल प्रतिद्वन्द्वी है ? बस, अब आपका आदेश ही मेरा विमर्श है।' ६२. हठाद् रिपूणां वसुधा विशेषात् , क्रान्ता मृगाक्षीव सुखाय पंसाम् । उत्सङ्गामेते समरोत्सवे हि , किं कातरत्वं विदधाति धीरः ? .. 'राजन् ! विशेष रूप से अकस्मात् आक्रान्त शत्रुओं की भूमि पुरुषों के लिए वैसे ही सुखकारक होती है, जैसे अकस्मात् आक्रान्त सुन्दरी सुखकारक होती है। युद्धोत्सव के निकट आने पर क्या धीर पुरुष कायरता दिखाता है ?' . . ६३. पश्य स्वसेनां हरिदुःप्रधर्षा , दोष्णोर्युगे देहि दृशं नरेश !।... तावद् बली सोऽपि न यावदीये , त्वया विरोधिक्षितिभञ्जनेन ॥ 'राजन् ! आप अपनी सेना को देखें । वह इन्द्र के द्वारा भी दुष्प्रधर्ष है। देव ! आप बाहु-युगल की ओर दृष्टि करें। वैरियों की वसुधा के टुकड़े-टुकड़े करने वाले आप जब तक सामने नहीं आते तब तक ही वह बाहुबली शक्तिशाली लगता है।' ६४. ममादभुतं वाक्यमतः परं त्वं , कर्णामृतं स्वीकुरु सार्वभौम !। इतो मया चारवरा नियुक्ताः , सेनानिविष्ट्यै निजबुद्धितो ह्यः । 'हे चक्रवत्तिन् ! अब इसके आगे आप मेरी आश्चर्यकारी और अमृत के समान मधुर वाणी को ध्यानपूर्वक सुनें। इधर मैंने अच्छे-अच्छे गुप्तचरों को, अपनी बुद्धिमत्तापूर्वक सेना की व्यूह-रचना करने के लिए, कल ही नियुक्त कर डाला है।' ६५. तैरेत्य सानन्दमनोभिरेवं , विज्ञापितोऽहं प्रियसत्यवाक्यैः। अस्त्युत्तरस्यां दिशि दाव मेकमदूरगं चैत्ररथा दनूनम् ॥ 'राजन् ! प्रसन्न चित्त वाले उन गुप्तचरों ने यहाँ आकर प्रिय और सत्यवाणी में मुझे यह १. ह्यः-गतवासरे। २. दावः-कानन (काननं वनं, दवो दाव:-अभि० ४।१७६,१७७) . ३. चत्ररथं-कुबेर का वन (चैत्ररथं वनं-अभि० २।१०४)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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