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नवमः सर्गः
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महाराज भरत ने यह जानने के लिए गुप्तचरों को नियुक्त किया कि तक्षशिला के राजा बाहुबली क्या कर रहे हैं? उनकी सेना में कौन-कौन वीराग्रणी हैं ? उनकी सेना कैसी है ? -
५७.
भरत ने सेनापति से कहा - 'सेनाओं ने अपने देश की सीमा को लाँघ दिया है । कल सेना का पड़ाव कहाँ होगा ? इसके आगे हमें शत्रु के देश में जाना होगा । शत्रु आमने-सामने हुए बिना पराक्रम और अपराक्रम की अभिव्यक्ति नहीं होती ।'
५८.
कुत्र भावी ध्वजिनीनिवेशः, स्वदेशसीमा कटकैर्ललङ्घ । अतः परं गम्यमरातिदेशे, बलाबलव्य क्तिरि विना का ||
५६.
इस प्रकार कहे जाने पर सुषेण सेनापति ने दर्प के साथ राजा भरत से कहा- 'राजन् ! क्या पराक्रमी व्यक्तियों की, अपने और पराए के विचार से रहित, साहसश्री समुदित नहीं होती ? अवश्य होती है ।'
इतीरितः सोथ सुषेणसैन्याधिपः सदर्पो निजगाद भूपम् । महौजसामात्म पराऽविमर्शा, न साहसश्रीः समुदेति किञ्चित् ?
६०.
कायपी' दैन्यवतोपचर्या, संगृह्यते साहसिभिः क्षितीश ! | mata दाना' कपोलभित्तीन्, नव्हेलया हन्ति हरिर्गजान् किम् ?
'राजन् ! क्या दीन व्यक्ति पृथ्वी पर अधिकार कर सकते हैं ?" कभी नहीं । साहसी व्यक्ति ही उसे अपने अधीन कर सकते हैं। क्या अकेला सिंह मद से भीगे हुए कपोल वाले हाथियों को बात ही बात में नहीं मार डालता ?”
एषां भटानां समरोत्सुकानां भवन्निदेशोस्ति महान्तरायी । रवैः पुरः किं न तदीयपादा, भूमीभृदाक्रान्तिनिबद्धकक्षाः ?
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'राजन् ! युद्ध के लिए समुत्सुक इन वीर सुभटों के लिए आपका प्रदेश महान् विघ्नकारी है । क्या सूर्य के आगे-आगे चलने वाली उसकी किरणें पर्वतों को आक्रान्त करने के लिए उत्सुक नहीं होतीं ? अवश्य होती हैं ।'
१. काश्यपी - पृथ्वी ( काश्यपी पर्वताधारा - प्रभि० ४ | ३ )
२. दानं मद (मदो दानं प्रवृत्तिश्च - प्रभि० ४।२४६ ) ३. अन्तरायः विघ्न ( विघ्नेऽन्तराय प्रत्यूहः — प्रभि० ६ । १४५ ) ४. ...... निबद्धकच्छाः इत्यपि पाठः ।