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भरतबाहुबलि महाकाव्यम्
२४. आस्तीर्य शय्यां विरचय्य दीपं , कान्तेऽनपेते स्वसखीमुवाच ।
ससंभ्रमं स्नेहभरादुपेते , प्रिये मनो हृष्यति काचिदेवम् ॥
किसी सुन्दरी ने शय्या बिछाई और दीपक जलाया किन्तु अपने पति को आते हुए न देखकर वह उतावली होकर स्नेहिल वचनों से अपनी सखी से बोली-'सखी ! अब तो प्रिय पति के आने पर ही मन प्रसन्न हो सकता है ।' .
२५. काचिद् वितागममात्मभर्तुः , प्रियालि ! पश्यायमुपैति नैति ।
छलादितीयं विजनं चकार , पश्चात् प्रियाप्तौ च ददौ कपाटम् ।।
किसी सुन्दरी ने अपने पति के आगमन की वितर्कणा कर सखी से कहा-"प्रिय सखी ! देख, मेरे पति आ रहे हैं या नहीं।' यह कहकर वह छलपूर्वक एकान्त में चली गई। जब पति आ पहुँचा तब उसने दरवाजे बन्द कर दिए।
२६. ससंभ्रमं काचिदुपेत्य कान्ता , श्लिष्टा प्रियेणेति जहास कान्तम् ।
हृदि स्थिता या तुदति त्वदीये , गाढं न.संश्लेषमतो विधत्से ॥ .
किसी प्रिय ने शीघ्रता से आकर अपनी प्रिया का आलिंगन किया। तब वह उसका मजाक करती हुई बोली- 'तुम्हारे हृदय में स्थित सुन्दरी को व्यथा का अनुभव न हो जाए इसलिए तुम गाढ आलिंगन नहीं कर रहे हो ।'
२७. नखक्षतं काचिदवेक्ष्य कान्ते , निजं परस्यास्त्विति संवितक्यं ।
मां मुञ्च मुञ्चेति रुषा वदन्ती , यूना व्रजन्ती विधृता पटान्ते ॥
अपने पति के शरीर पर नखों के घाव देखकर एक सुन्दरी के मन में यह वितर्क उठा कि ये घाव मेरे द्वारा कृत हैं या दूसरी स्त्री द्वारा ? यह सोच, वह कुपित होकर बोल पड़ी-'मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो।' जब वह छुड़ाकर जाने लगी तब उस युवक ने उसको वस्त्र के अंचल से थाम लिया ।
२८. कादम्बरीस्वादविर्णिताक्षी , छायां निजां वीक्ष्य तदीयधाम्नि ।
एषा परेति प्रतिपाद्य रोषाद् , यूना वजन्ती कथमप्यरक्षि' ॥
एक सुन्दरी की आँखें मदिरापान के कारण अर्द्धनि द्रित सी हो रही थीं। उसने अपनी छाया को देखकर सोचा कि मेरे पति के पास यह कोई दूसरी स्त्री है। कुपित होकर १. पंजिकाकार ने इस श्लोक को पूर्व श्लोक का पाठान्तर माना है-इदं पूर्वस्यैव वृत्तस्य पाठान्तरम्-पत्न ३१ ।