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________________ ३४४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् । ५४. निगदन्निति चक्रधरो बहुधा , समभाष्यत तेन न किञ्चिदपि। स्पृहणीयतया परिहीनहृदो , नृपतीनपि यच्च तृणन्तितराम् ॥ चक्रवर्ती ने इस प्रकार बहुत बार कहा किन्तु मुनि बाहुबली ने प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं कहा । जिन व्यक्तियों का हृदय आसक्ति से परिहीन है, वे राजाओं को भी तृण के समान समझते हैं। ८५. त्रिदशाचलनिश्चलचित्तरुचेर्यतिनो भरताधिपवाग्विसराः। . न मुदे न रुषे व्यभवन् सुतरां, सुतरागपराङ्मुखता कृतिनः॥ . मेरु की भांति निश्चल चित्त वाले मुनि बाहुबली के लिए महाराज भरत के वचन न प्रसन्नता के लिए और न अप्रसन्नता (रोष) के लिए हुए। उनके मन में पुत्रों के प्रति अनुराग भी नहीं रहा था। ८६. सचिवैः प्रतिबोध्य कथञ्चिदयं , निलयान्तरनायि समं त्वरिणा। .. भरते भरताधिपतेः सकले , विजहार च शासनमस्य ततः॥ मंत्रियों ने भरत को समझाया और ज्यों-त्यों उन्हें चक्र के साथ शस्त्रागार के भीतर ले गए। इसके बाद समूचे भारत में महाराज भरत का अनुशासन चलने लगा। २७. बहलीविषये किल तस्य सुतं , विनिवेश्य ततः स निजां नगरीम् । उपगन्तुमियेष सुरेन्द्र इवेन्दिरया प्रबलध्वजिनीसहितः॥ बाहुबली के पुत्र को बहली प्रदेश का अधिपति बनाकर लक्ष्मी (वैभव) से युक्त इन्द्र की भांति महाराज भरत अपनी प्रबल सेना के साथ अयोध्या नगरी की ओर जाने के इच्छुक हुए। ५८. नभसस्त्रिदशैः स उपेत्य गुरुकुसुमैः परिवर्ध्य च चक्रधरः। ___ जगदे जयशब्दपुरस्सरया, सहितस्तनयैर्नृपबाहुबलेः॥ आकाश से देवता आए । उन्होंने विपुल कुसुमों से बाहुबली के पुत्रों के साथ चक्रवर्ती भरत का वर्धापन कर जयकार किया। ८९. श्रीमन् ! भारतभूपुरन्दर ! भवानाद्यो रथाङ्गी विहा शेषक्षोणिवपूकरग्रहकृती नन्द्याच्चिरं भारते। अत्यन्ताद्भुतचारिमा'ञ्चितललल्लावण्यपुण्योदयो, गीर्वाणः परिनूयतेस्म स इति प्रोद्दामसंपत्तिमाक् ॥
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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