________________
३४३
सप्तदशः सर्गः की । बाहुबली एकाग्रचित होकर स्थित थे । वे देवांगनाओं के नयनों से किञ्चिद् भी विचलित नहीं हुए। ७६. पत दशुकणाविलवक्त्ररुचिर्भरताधिपतिः समुपेत्य ततः।
प्रणनामतरां मत रामसिकानुरविरतं निरतं विरतौ ॥
इतने में ही महाराज भरत वहां आ गए। आंसुओं के बहने से उनकी मुखश्री पंकिल हो रही थी। उन्होंने संयम में संलग्न और अपने अभिप्राय की हठवादिता की अनुरक्ति से विरत मुनि बाहुबली को प्रणाम किया। ८०. प्रणिपत्य मुनिः कलिभङ्गकरः , समताञ्चितजानुविलम्बिकरः।
___सवचोभिरिति प्रणयप्रवणैर्जगदे जगदेकतमप्रभुणा ॥ मुनि बाहुबली के समतायुक्त हाथ दोनों घुटनों पर लटक रहे थे । वे युद्ध के वातावरण को भंग कर चुके थे । जगत् के अनन्य प्रभु भरत ने उन्हें प्रणाम कर प्रेम-प्रवण वचनों में इस प्रकार कहा
८१. यशसां पटहेन पटुध्वनिना , तव बान्धव ! सन्तु दिशो मुखराः।
मुखरागभिदो न पितुः सरणेमम तद्विपरीततरेण पुनः॥ 'बान्धव मधुर ध्वनि वाली आपकी यशःदुंदुभि से दिशाएं मुखरित हों । पिताश्री के अभिनिष्क्रमण के समय भी मेरे मुख की प्रसन्नता नहीं टूटी थी, किन्तु आज उससे विपरीत हो रहा है।' ८२. सुरंकिङ्कर ! किं करवाणि तवाऽनवधानधरं हृदयं न यतः।
समयो नियमस्य ममास्ति गुरोर्न तवास्ति लघोः कुरुषे किमतः ?
'हे देवताओं द्वारा उपास्य मुने ! आपका हृदय समाहित हो गया है । अब मैं क्या करू ? बड़ा भाई होने के नाते दीक्षा लेने का समय तो मेरा था, छोटे होने के कारण आपका नहीं । यह आप क्या कर रहे हैं ?'
८३. मम मन्तुमतो वहते रसना , रसनायकनायक ! नोक्तिमपि ।
सरितं तपतापवती सुमते !, पयसा मम पूरय चाभिमताम् ॥
'हे शान्तरस के नायक ! मैं अपराधी हूँ, इसलिए मेरी जीभ कुछ कह नहीं पा रही है । हे सुमते ! ग्रीष्म ऋतु से तप्त मेरी अभिमत सरिता को आप पानी से भर दें।'