SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'भरतबाहुबलि महाकाव्यम् ३४२ - भी निश्चय से असंयमी हो जाते हैं । यह पूजनीया पृथ्वी राजपुत्र को नरक में ले जाती है, इसलिए इसके लिए किए जाने वाले ऐसे कलह से हमें क्या ?' 'राजन् ! तुम अपने इस क्रोध का संहरण करो, संहरण करो। जिस मार्ग पर तुम्हारे पिता ऋषभ चले हैं, उसी मार्ग पर तुम चलो । सुपुत्र अपने पिता के मार्ग को कभी नहीं छोड़ते ।' 'राजन् ! यदि यह भूमी रूपी सुन्दरी तुमको वश में कर लेती है तो बड़ों को सम्मान देने की यह विधि मूलतः विधुर हो जाएगी ।' 'इन्द्र के वज्र की तरह प्रचंड प्रहार करने वाली तुम्हारी इस मुष्टि को संसार में कौन सहन कर सकता है ? तुम भरत द्वारा आचीर्ण चरित्र को मन से भी याद मत करो, जैसे श्रमण पूर्वकृत काम-क्रीडा को याद नहीं करता ।' 'राजन् ! तुम मुनिपद की साधना करो, साधना करो। तुम शीघ्रता से सरस शान्तरस का आसेबन करो। हे ऋषभदेव के वंशरूपी आकाश के सूर्य ! तुम्हारा मन आत्म-कल्याण के लिए अग्रसर हो !' इस प्रकार आकाश में देववाणी हुई । इतने में बाहुबली ने अपने बल का प्रयोग- अपने हाथ से शिर के केश - लुंचन में किया । 1 ७६. मुनिरेष बभूव महाव्रतभृत् समरं परिहाय समं च रुषा । सुहृदोsसुहृदः सदृशान् गणयन् सदयं हृदयं विरचय्य चिरम् ॥ , उस समय बाहुबली युद्ध और रोष को एक साथ छोड़कर, मित्र और शत्रु को समान मानते हुए हृदय को सदा के लिए करुणामय बनाकर महाव्रतधारी मुनि बन गए । ७७. सरसीरुहिणीव मुनीन्द्रतनुः सुकुमारतरा विधुराण्य सहत् । शिवलक्ष्मि निवासपदं सफला क्वचिदप्यनिता न्वऽनुपास्तिमती ॥ ७८. मुनीन्द्र बाहुबली का शरीर कमलिनी की भांति अत्यन्त सुकुमार था। उस शरीर से उन्होंने अनेक कष्ट सहे । वह शरीर मोक्ष का हेतु था और अपने लक्ष्य की सिद्धि में सफल था । लक्ष्य की उपासना नहीं करने वाला शरीर कहीं भी नहीं पहुंच पातालक्ष्य तक नहीं जा पाता । 1 अमरीभिरुपेत्य स राजऋषिर्तवणाद्य वतारणकैर्नुनुवे । दुधुवे सुरबालकुरङ्गदृशां नयनैर्न मनागपि चैकमनाः ॥ 1 देवांगनाएं राजर्षि बाहुबली के पास आईं और लवण आदि उतार कर उनकी स्तुति १. लक्ष्मि - यह ह्रस्व प्रयोग चिन्त्य है ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy