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सप्तदशः सर्गः
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तब बाहुबली क्रोध के आवेश में अपनी मुष्टि को उठा कर उस प्रकट अस्त्र चक्र को नष्ट करने के लिए दौड़ा। क्योंकि प्रत्यक्षतः स्वभाव से शीतल पानी भी अग्नि के प्रयोग से गरम हो जाता है। ६८. संहर्ता त्रिजगदनेन मुष्टिनायं , क्रोधाब्धिर्भरतपतिः स्थिति त्वलुम्पत् ।
श्रेष्ठानां क्षयकरणं भवेद् विरुद्धं , कि कार्य त्विति विबुधैर्व्यचारि चित्ते ॥ बाहुबली अपनी मुष्टि से तीनों लोकों का संहार कर देगा । क्रोध का समुद्र भरत अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर चुका है । श्रेष्ठ व्यक्तियों का क्षय करना व्यक्ति के लिए प्रतिकूल सिद्ध होता है-यह देखकर देवताओं ने अपने मन में सोचा कि अब क्या करना चाहिए ? (वे बाहुबली के पास आए)। . ६६. अयि बाहुबले ! कलहाय बलं , भवतोऽभवदायति'चारु किमु ?
प्रजिघांसुरसि त्वमपि स्वगुरुं., यदि तद्गुरुशासनकृत् क इह ? ७०. कलहं तमवेहि हलाहलकं , यमिता यमिनोप्ययमा नियमात् ।
भवती जगती जगतीशसुतं, नयते नरकं तदलं कलहैः ॥ नप ! संहर संहर कोपमिमं , तव येन पथा चरितश्च पिता । सर तां सरणि हि पितुः पदवीं , न जहत्यनघास्तनयाः क्वचन ॥ धरिणी हरिणीनयना नयते, वशतां यदि भूप ! भवन्तमलम् ।
विधुसे विधिरेष तदा भविता , गुरुमाननरूप इहाक्षयतः ॥ ७३. तव मुष्टिमिमां सहते भुवि को , हरिहेतिमिवाधिकघातवतीम् ।
- भरताचरितं चरितं मनसा , स्मर मा स्मर केलिमिव श्रमणः ॥ . ७४. अयि ! साधय साधय साधुपदं , भज शान्तरसं तरसा सरसम् ।
ऋषभध्वजवंशनभस्तरणे ! , तरणाय मनः किल धावतु ते ॥ ७५. इति. यावदिमा गगनाङ्गणतो , मरुतां विचरन्ति गिरः शिरसः । अपनेतुमिमांश्चिकुरानकरोद् , बलमात्मकरेण स तावदयम् ॥
-सप्तभिः कुलकम् । ' देवताओं ने बाहुबली से कहा-'हे बाहुबले ! तुम्हारा बल युद्ध के लिए प्रयुक्त हो रहा है। क्या यह भविष्य के लिए शुभ होगा ? यदि तुम भी अपने बड़े भाई भरत को मारना चाहते हो तो इस संसार में बड़े भाई की आज्ञा मानने वाला दूसरा कौन होगा ?' 'तुम उस कलह को हलाहल विष के समान जानो जिसका आश्रय लेकर संयमी मुनि
१. आयतिः-भविष्यकाल (आयतिस्तूत्तर: काल:-अभि० २७६) २. यं-कलह, इता:-प्राप्ताः ।।