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________________ ३४० भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'भाई ! तुम अभी भी प्रणिपात करलो, व्यर्थ ही क्यों मरते हो। अपनी भुजाओं के विपत्तिकारक अहं को छोड़ दो। देखो, मेरे चक्र की अग्नि की लपटों से. उत्तप्त होकर राजा कहीं भी सुख नहीं पा सके।' ६३. संरुष्टः सपदि तदीयया गिरेति , व्याहार्षीद बहलिपतिश्च कोशलेशम् । कि बन्धो ! ऽहमपि तवेदशैविभाव्यः , सारङ्गैर्हरिरिव यत्प्रभुस्त्वमेव ? . भरत की वाणी सुनकर सहसा कुपित हुए बाहुबली ने कहा-'भाई ! तुम अपने आप को ही प्रभु मान रहे हो । क्या मैं तुम्हारी इस प्रकार की बातों से डर जाऊंगा? क्या हरिणों से सिंह डर जाता है ?' ६४. मर्यादां परिजहतस्तवामरोक्तां , चक्राङ्गादथ विजयः कथं भविष्णुः ? पादाब्जं यदि हृदयेऽर्हतो ममादेः, किं कालायस'शकलाद बिभेमि तहि ? 'भाई ! तुमने देवताओं द्वारा विहित मर्यादाओं का उल्लंघन किया है, तब इस चक्र से विजय प्राप्त कैसे होगी ? यदि आदिदेव ऋषभ के चरण-कमल मेरे हृदय में स्थित हैं तो क्या मैं इस लोहे के टुकड़े चक्र से भयभीत होऊंगा ?'. ६५. औद्धत्यादिति निगदन्तमेनमुच्चैय॑स्राक्षीत् प्रति भरतोऽरि दीप्तिदीप्रम् । पाथोदस्तडितमिवास्य पार्श्व मेत्य , सम्राजं प्रति ववले ततो रथाङ्गम् ॥ उद्धतता से इस प्रकार बोलते हुए बाहुबली के प्रति भरत ने दीप्ति से जाज्वल्यमान चक्र को जोर से फेंका जैसे बादल विजली को फैकता है । वह चक्र बाहुबली के पास आकर चक्रवर्ती भरत की ओर मुड़ गया। ६६. स्वःसिन्धूदकलहरीवलक्षवक्त्रा , योद्धारो बहलिपतेस्तदाबभूवुः । कालिन्दीतरुणतरङ्गमज्जदास्याः , षट्खण्डाधिपतिभटास्तदैव चासन् ॥ उस समय बाहुबली के योद्धाओं के मुंह गंगा के पानी की लहरों की तरह उज्ज्वल हो गए और भरत के सैनिकों के मुंह यमुना की तरुण तरंगों में डूबे हुए जैसे मलिन हो गए। ६७. उद्यम्य प्रबलतया क्रुधा दधावे , तन्मुष्टि त्वयमपनेतुमुल्बणास्त्रम् । उष्णत्वं व्रजति हि वह्निसंप्रयोगात् , पाथोऽपि प्रकटतया स्वभावशीतम् ॥ १. कालायसम्-लोह (लोहं कालायसं शस्त्रम्-अभि० ४।१०३) । . २. शकलम्- (खण्डेऽर्धशकले भित्तम्-अभि० ६।७०) ३. उल्बणास्त्रम्-प्रकट अस्त्र (चक्र) ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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