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सप्तदशः सर्गः
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बाहुबली के तीव्र प्रहार से भरत गले तक भूनी में प्रवेश कर गए, जैसे शरभ पहाड़ की गुफा में प्रवेश कर जाता है । यह देखकर देवगण प्रमुदित हुए और उन्होंने आकाश मार्ग से शीघ्र ही बाहुबली के मस्तिष्क पर फूलों की वर्षा की ।
५८. स ज्येष्ठं तदनु विलोक्य कातराक्षं, खिन्नोन्तर्मुहुरिति चिन्तयाञ्चकार । हा ! तातान्यशरदेकशीत रश्मौ, कर्मेदं व्यरचि कलङ्कपङ्कलीलम् ॥
उसके पश्चात् बाहुबली ने अपने बड़े भाई भरत की ओर देखा । उनकी आंखें भयभीत थीं । बाहुबली का मन खिन्न हो गया । उन्होंने बार-बार यह चिन्तन किया - ' हा ! पूज्य पिता श्री ऋषभ देव का वंश शरद् ऋतु के चन्द्रमा जैसा निष्कलंक है । किन्तु मैंने कलंक से पंकिल ऐसा कार्य कर डाला !'
५६.
'मैंने इन सभी युद्धों के प्रयोगों से जान लिया है कि मेरी भुजाओं में या भरत की भुजाओं में ! सभी युद्ध क्रीडाओं में मेरी विजय हुई है के लिए भाई को मार डालना उचित नहीं है ।'
६०.
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विज्ञातं किल समरात् मयेत्यमुष्मान् मद्दोष्णोर्बलमधिकं रथाङ्गपाणेः । तत्सर्वाह वललितेष्वभूज्जयो मे हन्तव्यः परमवनीकृते न बन्धुः ॥
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६१.
नाभेrप्रथमसुतोऽथ भूमिमध्यान्निर्यातो
. जलदचयादिवोष्णरश्मिः । चक्राङ्ग निजकरपङ्कजे निधाय प्रोवाचानुजमधिकप्रतापदीप्रम् ॥
जैसे सूर्य बादल से बाहर निकलता है वैसे ही ऋषभ के प्रथम पुत्र भरत भूमी से बाहर निकले और प्रताप से अत्यन्त दीप्र चक्र को हाथ में लेकर बाहुबली से बोले—
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अधिक शक्ति है । फिर भी भूमी
भ्रात ! स्त्वं लघुरसि तत्तवापराधाः क्षन्तव्या मनसि मया गुरुर्गुरुत्वात् । दाक्षिण्यं तवं तु ममारि तीव्रमेतन्नो कर्त्ता तुहिनरुचेर्यथा तमास्यम् ॥
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★ "भाई ! तुम छोटे हो और मैं बड़ा हूँ, इसलिए मुझे अपने गुरुत्व को ध्यान में रखकर मन ही मन तुम्हारे अपराधों को क्षमा कर देना चाहिए । किन्तु यह मेरा तीव्र चक्र तुम्हारे पर कृपा नहीं करेगा, जैसे राहु चन्द्रमा पर कृपा नहीं करता ।'
६२.
अद्यापि प्रणिपतमञ्च मा मृयस्वाहंकारं त्यज भुजयोविपत्तिकारम् । चक्राङ्गज्वलनरुचोपतप्तदेहाः, कुत्रापि क्षितिपतयो रति न चापुः ॥
१. अरिन् – चक्र (रथाङ्ग रथपादोऽरि - अभि० ३।४१९) । २. तमास्यं - राहु |