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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
'यदि तुम्हें अपनी भुजाओं पर गर्व है तो तुम दंड हाथ में लो। तुम उन्मत्त हो गये हो इसलिए मैं तुम्हारे पर प्रेम नहीं रखूगा'-यह कहकर भरत ने शस्त्र के पिण्ड रूप दंड को दोनों हाथों से काडा-कमल की तरह घुमाया। ५३. अज्येष्ठस्तदनु तथैव लोहदण्डं , हस्ताभ्यां दृढमवस्य संयतेऽस्थात् ।
दण्डाभ्यामथ परितेनतुश्च संगरं तौ , षाट्कारारवमुखरीकृतत्रिविश्वम् ॥ ५४. संघट्टस्फुरदनलस्फुलिङ्गनश्यत्पौलोमीसिचयविवूननातितीवः। .
आकाशश्वसनरर्यविनीतखेदस्वेदाम्भःकणपरिमुक्तवीरवक्त्रम् ॥ ...
युग्मम् ।
उसके बाद कनिष्ठ भ्राता बाहुबली भी वैसे ही हाथों से लोहदंड को दृढ़ता से घूमाता हुआ युद्ध में स्थित हो गया। जब दोनों में दंड-युद्ध प्रारंभ हुआ तब दंडों के प्रहार के. 'षाटकार' शब्दों ने तीनों लोकों को मुखरित कर डाली।
उस समय दंडों के संघट्टन से अग्नि-स्फुलिंग उठ रहे थे । भय से दौड़ती हुई इन्द्राणी के कपड़े रूपी पंखों के तीव्र झलने से आकाश में . पवन का वेग बढ़ गया था। उससे वीर सुभटों के मुंह पर रहे हुए खेद रूपी स्वेद-बिन्दुओं का अपनयन हो गया। ५५. षट्खण्डाधिपतिरथ क्रुधा करालो , दण्डेन स्मयमिव मौलिमाबभञ्ज ।
तच्छीर्षाधिवसनकल्पितस्थिरत्वं , निःशङ्कबहलिपतेरुदनबाहोः॥ छह खंडों के अधिपति भरत ने क्रोध से विकराल होकर प्रचंड भुजा वाले बाहुबली के मुकुट, जिसने उनके सिर पर बने रहने की स्थिर कल्पना कर ली थी, को अपने दंड से निःशंक होकर तोड़ डाला, मानो कि उसके अभिमान का भंजन कर डाला हो ।
५६. आजानु क्षितिमविशत्तदीयघाताद् , दुर्दान्तद्विप इव वारि'मार्षभिः सः।
आयान्तं पुनरपि हन्तुमग्रजातं , दण्डेन प्रसभमथावधीदमर्षात् ॥
उस दंड-प्रहार से बाहुबली घुटने तक भूमी में धंस गया, जैसे दुर्दान्त हाथी बंधन भूमि में धंस जाता है । बाहुबली ने जब भरत को पुन: घात करने के लिए आते हुए देखा तो उसने क्रोध से विकराल होकर अपने दंड से भरत पर तीव्र प्रहार किया।
५७. आकण्ठं भरतपतिविवेश भूमौ , तद्घाताच्छरभ इवाद्रिकन्दरायाम् ।
आकाशात् त्रिदशवरैरपि प्रमोदान् , मुक्ता द्राक्कुसुमततिः कनिष्ठमूनि ॥ १, वारिः-हाथी की बंधन-भूमी (वारिस्तु गजबन्धभूः-अभि० ४।२६५)