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सप्तदशः सर्गः
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महाराज बाहुबली मन ही मन यह सोच रहे थे । इतने में ही भरत आकाश मार्ग में दीख पड़े । आकाश से आते हुए भरत को बाहुबली ने अपनी भुजाओं से झेल लिया, जैसे बगुला मत्स्य को ऊंचा फेंक कर पुनः झेल लेता है ।
४८.
तब बाहुबली ने अपने भाई भरत के स्वेदकणों को सुखाने के लिए चादर रूपी पंखों से हवा ली और क्षण भर के लिए आश्वस्त कर कहा - 'भाई ! युद्ध के मिष से बचपन में जो किया था, उसको याद करो ।'
४६.
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आश्वास्य क्षणमय, बान्धवं स्वकीयं प्रावार 'प्रवरविधूननाऽनिलेन । स्वेदाम्भः कणशोषिणा स ऊचे, बालस्य स्मर पुनराहवच्छलेन ॥
'राजन् ! छह खंडों को जीतने के समय तुम्हें जैसा श्रम नहीं हुआ था वैसा श्रम मेरे साथ बाहु-युद्ध करने में हुआ है । राजन् ! पर्वत के वृक्षों को उखाड़ फेंकने में क्या कोई कहीं भी हाथी की बराबरी कर सकता है ?"
५०.
षट्खण्डचा जयसमये न यादृशी तेऽभूच्छ्रान्तिस्त्विह मम तादृशी नियुद्धे' | शैर्वीरुहदलने गजस्य साम्यं, कुत्रापि प्रभवति किं धराधिराज ! ?
प्रागेव क्षितिप ! मयोदितं चराने, स्थातव्यं युधि भवतैव मे पुरस्तात् । कः स्थातुं त्रिदशfift विना विभूष्णुः, कल्पाब्धेः किल पुरतो विलोलवीचेः ? 'राजन् ! मैंने दूत से पहले ही कह दिया था कि युद्ध में तुम्हें ही मेरे समक्ष ठहरना है । विब्ध ऊर्मियों वाले प्रलयकाल के समुद्र के समक्ष मन्दर पर्वत के अतिरिक्त कौन स्थिर रहने में समर्थ हो सकता है ?'
५१. तद्वाक्यादिति कुपितोऽभ्यधादऽसौ तं तुष्टस्त्वं मनसि मया जितोद्य चक्री । यद्दोष्णोर्वदसि यथा तथावलेपात् सामान्यैः क्षितिपतिभिर्न जीयते हि ॥
५२.
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बाहुबली के इन वाक्यों से कुपित होकर भरत ने उससे कहा- तुम मन में यह सोचकर तुष्ट हो रहे हो कि मैंने आज चक्रवर्ती को जीत लिया है। तुम भुजाओं के अभिमान से जैसे-तैसे बोल रहे हो । सामान्य राजे चक्रवर्ती को नहीं जीत
सकते ।'
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गर्व यदि भुजयोगृहाण दण्डं तद्दृप्तः प्रणयमतो न संविधास्ये । इत्युक्त्वा नृपतिरविभ्रमत् कराभ्यां लीलाम्भोरुहमिव शस्त्रपिण्डदण्डम् ॥
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१. प्रावारः – उत्तरासंग (वैकक्षे प्रावारोत्तरासङ्गो - अभि० ३।३३६ )
२. नियुद्ध - बाहु युद्ध (नियुद्ध ं तद् भुजोद्भवम् - अभि० ३।४६३ )