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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जीव सारथि है। उसके पीछे-पीछे चलने वाला यह शरीर रथ के सदृश है । छह इन्द्रियां रथ को खींचने वाले छह बैल हैं। ये भिन्न-भिन्न मार्गों में जाने के लिए उत्सक हैं, किन्तु हे सारथि ! तुम्हारा चातुर्य तब है जब तुम मोक्ष नगर की प्राप्ति में निपुण तीर्थंकर द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का उल्लंघन न करो।'
६३. भवन्नत्य मौलियरचि मम हस्ताब्जयुगली ,
जिन ! त्वत्पूजायै चरणयुगली चापि विधिना । भवत्कल्याणालीविशदवसुधास्पर्शनकृते , ममेत्येते कायावयवविसराः सन्तु सफलाः ॥
'हे जिनेश्वर ! आपको प्रणाम करने के लिए मेरे मस्तक की, आपकी पूजा के लिए मेरे दोनों हाथों की और आपके पंच कल्याणों द्वारा निर्मल बनी हुई भूमि का स्पर्श करने के लिए मेरे इन दोनों चरणों की भाग्य ने रचना की है। इस प्रकार मेरे शरीर के ये सारे अवयव सफल हों।'
६४. स्तुत्वेति क्षितिवासवो जिनवरं श्रीनाभिराजाङ्गजं ,
चैत्यादेत्य बहिश्च कङ्कट'वरं व्याधाम'धारापहम् । , संग्रामाय दधौ विभावसुरिव प्रोद्दीप्रमंशुव्रजं , तूणीरद्वितयं च पाणिकमले द्राक् कालपृष्ठं धनुः ॥
इस प्रकार नाभिराज के पुत्र भगवान् ऋषभ की स्तुति सम्पन्न कर महाराज बाहुबली चैत्य से बाहर आए । उन्होंने संग्राम के लिए वज्र के प्रहारों को झेलने में समर्थ कवच धारण किया । जैसे सूर्य प्रचण्ड किरणों के समूह को धारण करता है वैसे ही उन्होंने तीखे तीरों से भरे-पूरे दो तूणीर धारण किए और अपने हाथ में कालपृष्ठ धनुष्य लिया।
६५. आरोहद् द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं निर्यन्मदाम्भोधरं,
मूर्त मानमिव प्रमाणरहितं प्रोद्यत्प्रभालक्षणम् । कोटीरद्युतिदीप्रभालतिलको विश्वम्भरावल्लभो , भूपालः परिवारितश्च तनुजः पुण्यैः सदेहैरिव ॥
महाराज बाहुबली मेरु पर्वत की भांति विशाल हाथी पर सवार हुए। उस हाथी के कुंभस्थल से मद कर रहा था । वह ऐसा लग रहा था कि मानो कि अमित मान ही मूर्त बनकर आ गया हो। वह अत्यन्त देदीप्यमान था। महाराज बाहुबली
१. कङ्कट:-कवच (सन्नाहो वर्म कङ्कट:-अभि० ३।४३०) २. व्याधाम:-वज (व्याधामः कुलिश:-अभि१ २।९५)