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त्रयोदशः सर्गः
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के मुकुट की दीप्ति से ललाट पर लगा तिलक चमक रहा था। वे राजाओं और अपने पुत्रों से परिवृत होकर चले। उस समय वे ऐसे लग रहे थे मानो कि पुण्य ही देह धारण कर आ गया हो।
६६. मूर्नाऽधार्यत भूवरेण च शिरस्त्राणं रिपुत्रासकृत् ,
शृङ्ग मेरुमहीमृतेव सकलौन्नत्यस्पृशा नन्दनः । अश्रान्तं परिवारितेन तनुभिः शैलेरिवायोधनं , मापीठं प्रयियासुना बहुविधरस्त्रैश्च दीप्तद्युता ॥
'छोटे पर्वतों से परिवत तथा समस्त उन्नति का स्पर्श करने वाले मेरु पर्वत की भांति अपने पुत्रों से परिवृत, बहुविध दीप्तिमान् अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित, रणभूमी की ओर प्रयाण करने के इच्छुक बाहुबली ने शत्रुओं को त्रास देने वाले शिरस्त्राण को वैसे ही धारण किया जैसे मेरु पर्वत शृंग को धारण करता है ।
६७. राजा बाहुबलि लेन सहितः पूर्व समभ्यागमत् ,
संग्रामक्षितिमुद्यति युतिपतौ मातङ्गवाहानुगः । दुर्धर्षः परभूभुजां करटिनां, पञ्चास्यवन्नन्दनरुत्साहैरिव मतिमद्भिरधिकप्रोत्सपिपुण्योदयः ॥
महाराज बाहुबली अपनी सेना के साथ सूर्य के उगते-उगते ही भरत से पहले रणभूमि में आ पहुंचे। उनके पीछे हाथी और घोड़े चल रहे थे। वे शत्रु-राजाओं के लिए वैसे ही दुर्धर्ष थे जैसे हाथियों के लिए सिंह दुर्धर्ष होता है। वे मूर्तिमान् उत्साह की तरह अपने पुत्रों से अधिक वृद्धिंगत पुण्योदयवाले लग रहे थे।
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-इति बाहुबलिसंग्रामभूम्यागमनो नाम त्रयोदशः सर्गः