________________
पुस्तकालये श्रीजैनश्वेताम्बरतेरापंथीमहासभामन्त्रिणा छोगमलचोपडाभिधेन एका प्रतिर्लब्धा, प्रतिलिपिश्च कारिता । सा अत्यशुद्धिगर्भा, तेन द्विः प्रतिलिपिः कारिता। साप्यशुद्धिबहुला। तत्रत्या मूलप्रतिरपि त्रुटितपाठा दुर्बोधाक्षरासीत्, ततोऽपि लिविका प्रतिलिपिर्बहुविकृति नीता । सरदारशहरे सा प्रतिः सुलभाऽभूत् तदा पूज्यपादः संशोधनपूर्वकमेवैतल्लिप्यर्थमहमादेशिषि । अहं यथासंभवं प्रतियुगलं अनुसन्धाय व्यलेखिषमिमां प्रतिम् । पुनश्च आगरानगरे पूज्यानां पदार्पणसमये मूलप्रति वीक्ष्य संशोधिता। बहुषु श्लोकेषु न्यूनपदानि न्यूनवर्णानि च यथासंभवं पूरितानि। क्वचित् तत्प्रतिगतः पाठभेदोऽपि लिखितः।
परमाराध्यपरमपूज्यपरमोपकारिप्रवरपरमश्रद्धाभिवन्दनीयमहर्षि महितपरमपुरुषोत्तमपूज्यार्यवर्याणामनुग्रहमुपपश्यन् मुनिनथमलः प्रतिमिमां लिपिकृतवान् द्विसहस्राब्दे द्वय त्तरे । पूरकञ्च लिखितं २००६ फाल्गुनमासे पूर्णिमायां होलीदिने लूणकर्णसरे । स्वस्तिःअनुवाद
प्रस्तुत काव्य का हिन्दी अनुवाद मुनि दुलहराजजी ने किया है। अनुवाद के कार्य को कठिन भी नहीं कहा जा सकता तो सरल भी नही कहा जा सकता। उसमें अपना कुछ जोड़ना नहीं होता इसलिए वह कठिन कार्य नहीं है। किन्तु दूसरे के चिन्तन को स्वगत बनाकर अपनी भाषा में प्रस्तुत करना होता है इसलिए वह सरल कार्य भी नहीं है । अनुवादक ने काव्य को अपनी भाषा का परिधान देकर भी उसकी मौलिकता को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है और उस प्रयत्न में उन्हें सफलता भी मिली है । अनुवाद की भाषा स्पष्ट; सरल और सरस है । वाक्यों की जटिलता प्रायः नहीं है। कहीं-कहीं कुछ वाक्य लम्बे और जटिल हो गए हैं और कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति की श्लथता भी है। फिर भी कुल मिलाकर यह बहुत सुन्दर बन पड़ा है। अब तक जैन संस्कृत काव्यों के अनुवाद हिन्दी भाषा में बहुत कम हुए हैं। उनकी संस्कृत टीकाएं भी प्रायः नहीं हुई हैं। इसलिए विद्यार्थी वर्ग उनके अध्ययन से वंचित रहा है। साधारण पाठक के लिए भी वे सुलभ नहीं हैं । इस स्थिति में यह प्रयत्न दिशासूचक है। यदि इस प्रकार के प्रयत्न का सातत्य रहे तो जैन काव्यों के विषय में विद्वानों की धारणाएं स्पष्ट हो सकती हैं।
__ भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर इस अनूदित काव्य का प्रस्तुतीकरण उनके चरणों में विनम्र श्रद्धाञ्जलि ओर सहृदय जनता के लिए सरस उपहार होगा। २५०० वां निर्वाण दिवस
.. मुनि नथमल दिल्ली