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स्वकथ्य
वि० सं० २००५ तक तेरापंथ धर्मशासन में विद्यार्थी साधु-साध्वियों के लिए कोई पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं था । अनेक साधु संस्कृत के पारगामी विद्वान् थे और वे अपने सहयोगी श्रमणों की संस्कृत का अध्ययन करवाते थे। संस्कृत व्याकरण का निर्माण भी हो चुका था। संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने वाले साधु-साध्वियों का एक दल प्रकाश में आ चुका था। कुछेक आशुकवि भी थे। अध्ययन-अध्यापन का क्रम यह था कि सबसे पहले विद्यार्थी साधु-साध्वी कालुकौमुदी (व्याकरण की प्रक्रिया) कंठस्थ करते । फिर अभिधानचिन्तामणि कोष कंठस्थ कर वाक्य रचना का अभ्यास करते हुए आगे बढ़ते जाते । इस क्रम में अनेक साधु-साध्वियों ने प्रवेश किया और कई विद्वान् बनकर बाहर आए। .
. मैं २००५ में दीक्षित हुना । वि० सं० २००६ में पाठयक्रम बना । दसों साधुसाध्वियों में इस पाठ्यक्रम से अध्ययन करने की प्रेरणा जागी। मैं भी उसी क्रम में अध्ययन करने लगा। प्रतिवर्ष परीक्षाओं का क्रम चलता रहा। दो वर्ष तक मैंने भी परीक्षाएं दीं। तत्पश्चात् मेरे पर परीक्षाओं के समायोजन का उत्तरदायित्व आया। मैं लगभग बीस बर्षो तक इस कार्य में संलग्न रहा। अनेक साधु-साध्वी इस क्रम से अध्ययन कर पारंगत हुए।
इस पाठ्यक्रम में हमने अन्यान्य जैन काव्यों के साथ 'भरतबाहुबलिमहाकाव्य' को भी रखा। रघुवंश, शिशुपालवध आदि काव्य भी पाठ्यक्रम में थे। इनके पठनपाठन से यह अनुभव हुआ कि 'भरतबाहुबलिमहाकाव्य' एक सरस और सुन्दर काव्य है। इसका शब्दचयन भी विद्यार्थियों के लिए बहुत ज्ञानवर्धक है, आदि-आदि। किन्तु इसके हिन्दी रूपान्तर की बात उस समय नहीं सोची।
वि० सं २०२८ में गंगानगर के प्रोफेसर श्री सत्यव्रतजी जैन काव्यों पर महाप्रबन्ध लिख रहे थे। उन्हें इस काव्य की जानकारी मिली और वे गंगाशहर आ गए। उस वर्ष-का मर्यादा-महोत्सव वहीं था। उन्होंने काव्य का अवलोकन किया। रात-दिन उसके विश्लेषण में लगे रहे और अन्त में उन्होंने कहा-'यदि मुझे यह काव्य नहीं मिलता तो मेरे महाप्रबंध में एक कमी रह जाती। मैंने जितने भी काव्य अपने महाप्रबंध के लिए चुने हैं, उनमें यह काव्य अनेक दृष्टियों से उत्तम है।'
प्रोफेसर सत्यव्रतजी ने वह महाप्रबंध हमें दिखाया । उन्हें उस पर पी. एच.डी. की उपाधि भी मिल गई।
• उसके पश्चात् इस महाकाव्य के अनुवाद की बात हमने सोची और महामनीषी मुनिश्री नथमलजी ने मुझे इसकी प्रेरणा दी। मन में इस काव्य के प्रति अनुराग तो