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________________ २४ था ही, वह और अधिक घनीभूत हो गया और एक मास पश्चात् ही (वि०सं० २०२८ फा० शु१०) डूंगरगढ़ में मैंने काव्य का अनुवाद प्रारंभ कर दिया । __ अनुवाद का कार्य कुछ कठिन अवश्य लगा किन्तु मुनिश्री के मार्ग-दर्शन से वह सरल होता गया और लगभग पांच महीनों में (आषाढ़ शुक्ला १५) चूरु में उस कार्य को सम्पन्न कर सका। हमारे लाडनूं भंडार में इस काव्य की पंजिका युक्त एक अपूर्ण प्रति भी थी। उसका भी मुझे सहारा मिला। कहीं-कहीं मेरा अनुवाद पंजिका में दिए हुए अर्थ से दूर चला गया है। ऐसा मुझे अर्थ के सामंजस्य के कारण करना पड़ा है । पञ्जिका में स्वीकृत पाठ और हमारे द्वारा स्वीकृत पाठ में भी कहीं-कहीं अन्तर है। इस प्रकार कार्य का एक चरण सम्पन्न हो गया। अनुवाद का निरीक्षण करने के लिए मैंने मुनिश्री से प्रार्थना की । उस प्रार्थना को बहुमान देकर आपने अपने अतिव्यस्त कार्यक्रम में इसे स्थान दिया और लगभग छह महीनों में यह कार्य भी सम्पन्न हो गया। कार्य का यह दूसरा चरणं भी पूरा हो गया। मूनि राजेन्द्रकुमार जी ने सारे काव्य की अनुवाद सहित प्रतिलिपि करने में मुझे बहुत सहयोग दिया और वह कार्य भी ठीक समय पर सम्पन्न हुआ। फिर आचार्यश्री ने यह फरमाया कि पञ्जिका की जो अधूरी प्रति हमारे पास है, उसको भी महाकाव्य के परिशिष्ट के रूप में दे देनी चाहिए। पञ्जिका की प्रति काफी प्राचीन है । अतः उसके अक्षर भी पढ़ पाना हरेक के लिए सम्भव नहीं है। मैंने तब उसकी शुद्ध प्रतिलिपि तैयार की। उसमें मुझे दो महीने लगे। इस महाकाव्य की मूलप्रति और पञ्जिका की प्रति के विषय में मुनिश्री द्वारा लिखित 'प्रस्तुति' में पर्याप्त विवरण प्रस्तुत किया जा चुका है। सहयोगानुभूति वामन शरीरयष्टि से विराट् व्यक्तित्व के पारावार. का अवगाहन करने वाले आचार्यश्री तुलसी इस कार्य के मूक प्रेरक रहे हैं। जब कभी प्रसंग आता तब आप इस काव्य-ग्रन्थ की मुक्त प्रशंसा करते और व्याख्यान में जनसमूह के मध्य इस का वाचन कर स्वयं आनंद का अनुभव करते हुए श्रोताओं को भी आनन्द लहरियों में थिरकते देखते । विद्या-विकास के लिए किए गए आपके अनगिन प्रयास तेरापंथ धर्मशासन के कीर्तिस्तम्भ बने हैं, जिनके आलोक में सैकड़ों मुमुक्षु ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में आगे बढ़ रहे हैं । मैं भी उसी पथ का एक बौना पथिक हूँ जो टकराता-संभलता चल रहा हूं। सब कुछ जिसका हो, जो सर्वेसर्वा हो उसके प्रति आभाराभिव्यक्ति व्यवहार मात्र हो सकती है। 'आचार्य पंद' एक व्यवहार का ही
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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