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________________ २५ द्योतक है, अतः मैं उस पद पर आसीन आचार्य श्री का आभारी हूं, जिन्होंने रत्नत्रयी की साधना में जुटे रहने का मुझे साहस दिया और कार्यरत रहने का मन्त्र फूका । मुनिश्री नथमलजी इस कार्य के प्रत्यक्ष प्रेरक रहे हैं । उन्होंने एक नहीं, अनेक बार कहा-तुम इसका हिन्दी में अनुवाद कर लो। यह प्रेरणा वर्षों से मेरे अवचेतन मन में काम करती रही । काल का परिपाक हुआ। भावना बलवती हुई और कार्य की सम्पन्नता भी सहज-सरल ढंग से हो गई। तीसरे दशक के उत्तरार्द्ध में दीक्षित होने के कारण मैं मुनिश्री के पास एक शिशु विद्यार्थी की भांति नहीं पढ़-लिख सका । कई बार इसका मुझे खेद भी हुआ। फिर भी मैं आपके निकट में रहकर कुछ पढ़-लिख सका, इसका मुझे सन्तोष है। मनिश्री ने मेरी मनीषा को मांजने-संवारने के उपक्रम किए और समय-समय पर विभिन्न कार्यों में संलग्न कर मेरी कमियों की ओर ध्यान न देते हुए मुझे सतत प्रेरित करते रहे । फलस्वरूप श्रुतान की ओर मेरी गति होती गई । 'व्यक्ति केवल पुस्तकों से ही नहीं पढ़ता, वह कार्य में संलग्न होकर भी पढ़ता लिखता है'-इसकी अनुभूति मुझे कराकर कार्य के प्रति मेरे दायित्व को आपने उजागर किया। निष्काम योगी और महामनीषी मुनि श्रोनथमलजी के प्रति मैं सर्वात्मना कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी विशाल ज्ञानराशि से एक और बिन्दु को पाने का प्रयास करू', यही मेरे लिए श्रेयस्कर है। मैं मुनि राजेन्द्रकुमारजी को भी नहीं भूल सकता । यदि मैं कहं कि इस कार्य का सारा श्रेय. उनको ही मिलना चाहिए तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। अस्वस्थता के बावजूद भी उन्होंने इस काव्य के सारे प्रूफ देख, मुझे आवश्यक सूचनाएं दी और मेरे प्रमाद के कारण यत्र-तत्र कुछ त्रुटियां रह गईं थीं उनकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया। तीनों परिशिष्ट उन्हीं के द्वारा तैयार किए गए हैं। इस अन्तराल में मैंने देखा कि उनकी बुद्धि गहराई में जाने लगी है और वे संस्कृत के मूलभूत रहस्यों को समझने में सक्षम होते जा रहे हैं। इस कार्य से उनकी बुद्धि का भी विकास हुआ है, इसकी मुझे परम प्रसन्नता है । मैं चाहता हूँ कि वे इसी गति से आगे बढते रहें। अन्त में मैं सेवाभावी मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी के प्रति विनम्र आभार प्रगट करता हूँ। उन्होंने प्रत्यक्षतः मधुर ताडना और परोक्षतः उत्साहवर्द्धक वचन कहकर मेरे इस कार्य की सराहना की है। उनका पितृतुल्य संरक्षण और मातृतुल्य. वात्सल्य मेरे लिए मूल्यवान् है।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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