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________________ २१ . भंडारगत प्रति की प्रतिलिपि—दोनों के आधार पर प्रस्तुत काव्य का संपादन किया। हमारे संघ की प्रति में जितना अंश है उसके संपादन में मुझे विशेष कठिनाई नहीं हुई। किन्तु प्रतिलिपि के संपादन में मुझे पर्याप्त श्रम करना पड़ा। उसमें कहीं वर्ण और कहीं चरण के चरण त्रुटित थे। किसी दूसरी प्रति से पूर्ण पाठ प्राप्त होने की संभावना नहीं थी। इसलिए अपूर्ण चरणों तथा अप्राप्त अक्षरों को मैंने पूर्ण किया । वि० सं० २००६ में हम आगरा गए तब 'विजयधर्मसूरि ज्ञानमन्दिर' की प्रति को देखा । उसकी लिपि दुर्बोध और पाठ खंडित थे। फिर भी वह प्रस्तुत काव्य की सुरक्षा का एक मात्र आधार बनी। संघीय प्रति-परिचय ___ यह प्रति अधूरी है । इसके ४३ पत्र उपलब्ध हैं। उनमें दस से पन्द्रह तक के पत्र नहीं हैं। नौंवे पत्र के अन्त में दूसरे सर्ग के. ६३ वें श्लोक का प्रथम चरण मात्र आया है और १६वा पत्र तीसरे. सर्ग के अंतिम श्लोक के तीसरे चरण से प्रारम्भ होता है। ४३ वें पत्र का अन्तिम पद है-'प्राणैरपि निज प्रभु' (११।७८ का प्रथम चरण)। प्रत्येक पत्र की ग्यारह पंक्तियों में बड़े अक्षरों में मूल श्लोक लिखे गए है और ऊपर-नीचे तथा दोनों पाश्वों में बारीक अक्षरों में पंजिका लिखी गई है। इस प्रकार ग्यारहवें सर्ग के ७८ वें श्लोक तक की पंजिका प्राप्त है। आगे के पत्र अनुपलब्ध हैं । प्रत्येक सर्ग के अन्त. में-- - 'इति श्रीतपागच्छाधिराजश्रीविजयसेनसूरीश्वरराज्ये पं० श्रीसोमकुशलगणिशिष्यपुण्यकुशलगणिविरचिते भरतबाहुबलिमहाकाव्ये' लिखा हुआ है। - मेरे द्वारा संपादित व लिखित प्रति के २८ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र के एक-एक पार्श्व में बीस-बीस पंक्तियां हैं। यह प्रति वि० सवत् २००२ में लिखी गई । आगरा ग्रंथागारं की प्रति के अवलोकन के बाद संपादन का इतिहास, वि० सं० २००६ में फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन लूनकरणसर में मेरी हस्तलिखित प्रति के अंत में, मैंने लिखा-। वह इस प्रकार है इदं काव्यं प्राक् पञ्चमाचार्यप्रवरश्रीमघवगणिनः समये तेरापंथशासने अविकलमासीत् । तत्समथे केनचित् साधुना गणाद् बहिनिर्गच्छता पुस्तकमेकं सार्ध नीतम् । तस्मिन्निदं काव्यमपि गतम्। पञ्चमाचार्यवयः परिषदि वाचितमिदम् । अस्य जाता तेन महती प्रसिद्धिः। पुनरन्विष्टं तदा तत्प्रतेः कानिचित् पत्राणि लब्धानि, न तु पूर्णा प्रतिः । कालूगणिनामपीदं प्रति पूर्णोनुरागो व्यभात् । किन्तु न जातोपलब्धिः। श्रीतुलसीरामाचार्या अपि अन्वेषयन् । बहुवर्ष यावन्नमिलितम् । वि० २००२ वर्षे आगरा (यू० पी०) नगरे विजयधर्मलक्ष्मीज्ञानमन्दिरनाम्नि जैन
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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