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अष्टादशः समः . ७५. तत्पाणिपमान्निपपात चैकं, रत्नाङ्गुलीयं स ततः क्षितीशः ।
व्यचिन्तयत् पुद्गलमेतदेव , विभूषणर्धाजति चेतसीति ॥ भरत के हाथ से रत्नजटित अंगूठी नीचे गिर पड़ी तब भरत ने मन में यह सोचा'यह शरीर पुद्गल है । यह आभूषणों से ही शोभित होता है।'
७६. उपाधितो भ्राजति देह एष , न च स्वभावात् कथमत्र रागः ।
तत्खाद्यपेयैः सुखितः प्रकामं , न स्वीभवेज्जीव ! विचारयतत् ॥
'यह शरीर बाह्य उपाधियों (उपकरणों) से भूषित होता है, स्वभाव से नहीं । ऐसी स्थिति में इसके प्रति राग-भाव क्यों किया जाए ? इसको खाद्य और पेय से यथेष्ट सुख पहुँचाने पर भी यह अपना 'स्व' नहीं होता । आत्मन् ! तू इस पर विचार कर।' ७७. एकान्तविध्वंसितया प्रतीतः , पिण्डोयमस्मादिति कात्र सिद्धिः।
विधीयते चेत् सुकृतं न किञ्चिद् , देहश्च वंशश्च कुलं मृषेतत् ॥ 'इसलिए यह शरीर एकान्ततः क्षरणशील है। ऐसी स्थिति में इससे कौन सी सिद्धि प्राप्त होगी ? यदि कुछ भी सुकृत नहीं किया जाता है तो यह शरीर, यह वंश और यह कुल–सारे मृषा हैं, निरर्थक हैं । ७८. स भावनाभावितचित्तवृत्तिायन्निति ज्वानहताम्यसूयः ।
त्रिकालवेदी समभूत्तदानीं , किमार्षमीणां चरितेष चित्रम? भावनाओं से भावित चित्तवृत्ति वाले भरत इस प्रकार सोच रहे थे । ध्यानलीनता के कारण उनकी असूया नष्ट हो चुकी थी। वे तत्काल सर्वज्ञ हो गये तीनों कालों के ज्ञाता हो गये । ऋषभ के पुत्रों के चरित्र में यह आश्चर्य ही क्या है ?
७९. जयशब्दविराविमिरेत्य सुरस्त्रिदिवास्थ भारतराज ! इति ।
बभणेऽधिकपुण्यपरोऽत्रभवान् , गृहिवेषधरोऽपि च केवलभृत् ॥ उस समय देवता स्वर्गलोक से आए और भरत का जय-जयकार करते हुए बोले'भारतराज ! आप अधिक पुण्यशाली हैं कि आप गृहवेश में भी केवली हो गए।
८०. अतिरिच्य स एव पितुस्त्वमिहोदयवान् किल केवलवान्नपते !।
कृतवान्न च कष्टमपि प्रवरं, चरणे न परीषहमप्यसहः॥
'राजन् ! आप केवलज्ञान प्राप्त कर अपने पिता से भी अधिक उदयवान् हुए हैं। आपने चरित्र के पालन में भी कोई विशेष कष्ट नहीं किया और न आपने कोई परीषह ही सहा है।'