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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् उस देववाणी को सुनकर भी महाराज भरत का वैराग्यरस विशेष रूप से पुष्ट हुआ। क्योंकि सज्जन व्यक्तियों की प्रवृत्ति सदा अभिनन्दनीय होती है।
७०. धन्याः सदा मे खलु बान्धवास्ते , धन्यः स मे बाहुबलिश्च बन्धुः ।
करोमि किं नाग इवोरुपके , मग्नो न मे जन्म विमुक्तयेऽस्ति ॥ भरत ने सोचा-मेरे वे सभी बन्धु धन्य हैं । मेरा वह भाई बाहुबली भी धन्य है। विपुल पंक में फंसे हुए हाथी की भांति अब मैं क्या करू ? मेरा जन्म विमुक्ति के लिए नहीं है।
७१. राजेन्द्रलीला अपि तेन सर्वा , विमेनिरे चेतसि रेणुकल्पाः ।
पाठीन'मात्मानमजीगणच्च , स शुद्धचेता विषयार्णवान्तः ॥
उस शुद्धचेता भरत ने मन में समूची राजलीला को धूली के समान माना और विषय रूपी समुद्र के बीच अपनी आत्मा को एक मत्स्य के रूप में स्वीकार किया।
७२. ता राजदारा नरकस्य कारास्ते सर्वसाराः कलुषस्य धाराः ।
शनैः शनैश्चक्रभृताऽथ तेन , प्रपेदिरे बान्धववृत्तवृत्त्या ॥
अपने भाईयों द्वारा आचीर्ण वृत्तियों के आधार पर चक्रवर्ती भरत ने धीरे-धीरे यह जान लिया कि सभी रानियां नरक के कारागृह के समान हैं और सारा ऐश्वर्य पाप का प्रवाह है। ७३. अन्येच रात्मानुचरोपनीतभूषाविधिभूषितभारतश्रीः ।
आदर्शगेहे निषसाद भूपः , पराजितस्वर्गधरेन्द्ररूपः ॥ . एक बार भरत चक्रवर्ती अपने अनुचर द्वारा लाए गए आभूषणों से अपने आपको भूषित कर कांचमहल में बैठे थे। उस समय वे स्वर्ग-निवासी इन्द्र के रूप को भी पराजित करने वाले जैसे लग रहे थे।
७४. वराङ्गनावीजितचामरश्रीर्गीर्वाणहस्तान्जधृतातपत्रः।।
स आत्मदशेषु' निजं स्वरूपं , विलोकयामास युगादिसूनुः ॥ उस समय भरत कांचमहल के दर्पणों में अपना रूप देख रहे थे । वेश्याए चामर डुला रही थीं और देवताओं के हस्त-कमल में छत्र थे।
१. पाठीनः—मत्स्य विशेष (पाठीने चित्रवल्लिकः-अभि० ४।४११) . २. आतपत्रम्-छन । ३. आत्मदर्श:-दर्पण (मुकुरात्मदर्शाजदर्शास्तु दर्पणे–अभि० ३।३४८) ।