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________________ अष्टादशः सर्गः .. ६४. गते वदन्त्याविति गाढवाचा , गजाधिरोहस्तव यत् स्वभावः । अत्याजि गार्हस्थ्यमदस्त्वया तद , व्यहायि बन्धो ! न गजाधिरोहः ॥ उन दोनों ने वहां आकर अतिशय वचनों से यह कहा—'मुने ! हाथी पर आरूढ होने का आपका स्वभाव है। किन्तु आपने गार्हस्थ्य को छोड़ दिया है। किन्तु बंधो ! आपने गज पर चढना नहीं छोड़ा।' ६५. एते तनूजे वृषभध्वजस्य , सत्यंवदे किं वदतो ममेति । तद्वाचमाचम्य मुनिः स तकं , चकार चैनं प्रणिधानमध्ये ॥ उनकी वाणी सुनकर मुनि बाहुबली के समाहित चित्त में यह तर्क उपस्थित हुआक्या इस प्रकार कहने वाली ये ऋषभ देव की दोनों पुत्रियां मुझे सच कह रही हैं ? ६६. सत्यं किलतद् वचनं भगिन्योरारूढवानस्मि मदद्विपेन्द्रम् । शुभो ममास्त्यत्र ततोऽवतारः, स्थानेऽमिलज्जानवधून माञ्च ॥ 'हां, बहिनों का यह कथन सत्य है । मैं अहंकार रूपी हाथी पर आरूढ हूं। उससे नीचे उतरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है । यह उचित ही है कि केवलज्ञान रूपी वधू मुझे प्राप्त नहीं हुई है।' ६७. इति स्वयं स प्रणिधाय साधुनमश्चिकीर्षुसंघुबन्धुवर्गम् । चचाल यावत् पदमात्रमेकं , तं केवलश्रीरुदुवाह तावत् ॥ इस प्रकार स्वयं चिन्तन कर मुनि बाहुबली ने अपने छोटे भाइयों को प्रणाम करने के लिए ज्योंहि एक. पर आगे रखा त्योंहि केवलज्ञान रूपी वधू ने उनका वरण कर लिया-के केवली हो गए। म ६८. तत्केवलज्ञानमहं विधातुं, राजन् ! बजामो वयमद्य तूर्णम् । सम्यक्त्वहानिर्मरुतां तदा स्याज्ञानप्रभावो यदि न क्रियेत ॥ 'राजन ! केवलज्ञान-प्राप्ति के उस उत्सव को मनाने के लिए हम आज शीघ्रता से जा रहे हैं । यदि हम देवगण ज्ञान की प्रभावना न करें तो हमारे सम्यक्त्व की हानि होती है।' ६९. सा भारती भारतवासवस्य , सौरी' श्रुतेर्गोचरतां गताऽपि । पुपोष वैराग्यरसं विशेषात् , सतां प्रवृत्तिहि सदाभिनन्द्या ॥ १. गाढम -अतिशयं (अत्यर्थे गाढमुद्गाढम्-अभि० ६।१४१) २. सौरी-सुराणामियं (भारती) सौरी।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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