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________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् इस प्रकार समस्त ऋतुओं के योग्य विलास-नाटयों में लीलारत महाराज भरत ने आकाशमार्ग में विमानों द्वारा विचरण करने वाले देवताओं को अत्यन्त आश्चर्यचकित दृष्टियुक्त बना दिया। ५९. सुरा ! भवन्तः क्वचिदप्ययन्तः , कथं त्वरन्तां जगतीभुजेति । पृष्टास्तमाचल्युरुदात्तवाचो, निदानमभ्यागमनस्य तेऽदः ॥ महाराज भरत ने देवताओं से पूछा-'आप इतनी त्वरा से कहां जा रहें हैं ?' तब देवताओं ने उदात्त वाणी में अपने-अपने अभ्यागमन का यह कारण बताया। ६०. राजन् ! भवबन्धुरपास्य राज्यं , धृतव्रतो बाहुबलिर्बलाढ्यः । . संवत्सरं मानगजाधिरूढः , शीतातपादीन्यपि सोढुमष्ट ॥ . 'राजन ! आपके पराक्रमी भाई बाहुबली ने राज्य का त्याग कर व्रत धारण कर लिया है। वे अभिमान के हाथी पर आरूढ होकर एक वर्ष से शीत, आतप आदि कष्टों को सहन कर रहे हैं। ६१. तं केवलज्ञानरमावरीतुकामाऽपि नागच्छति साभिमानम् । सर्वाहि नार्यो विजनं प्रियं स्वं , नितान्तमायान्ति किमत्र चित्रम् ? 'केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी बाहुबली का वरण करने की इच्छक होती हुई भी उनके पास नहीं आ रही है क्योंकि वे अभिमान के साथ रह रहे हैं। सभी स्त्रियां सदा अकेले रहने वाले अपने पति के पास आती हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?' ६२. तं भाववेदी भगवान् विवेद , मानांतुरं मानितसर्वसत्त्वः । तपः किमर्थं कुरुतेऽयमारात् , स्मयोऽस्य चेतहि हृदीति तातः ॥ 'सर्व प्राणियों द्वारा पूजनीय सर्वज्ञ भगवान् ऋषभ ने देखा कि उनका पुत्र मान से आकुल है । उन्होंने सोचा-'यदि उसके हृदय में गर्व है तो वह पुत्र इतने लम्बे समय से तपस्या क्यों कर रहा है ?' ६३. मत्वा मुनि तं भगवान् मदान्धौ , मग्नं सुते स्वे प्रजिघाय साध्व्यो। समागते ते बहलीवनं तन्मूर्ते इवार्हत्स्थितिनिर्वृती द्राक् ॥ मुनि बाहुबली को गर्व के समुद्र में डूबा हुआ जानकर भगवान ऋषभ ने अपनी प्रबजित दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी और सुन्दरी को वहां भेजा। वे दोनों शीघ्र ही बहलीवन में आई, मानो कि अर्हत् दशा और निर्वृति (शांति)-दोनों मूर्त हो गई हों।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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