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________________ अष्टादशः सर्गः ५३. वहन्नवश्याय'कणान् कृशानुध्वजाधिकश्यामतनुश्चचार । मुहुर्मुहुर्वावितदन्तवीणः, शैत्यप्रवीणः शिशिराशुगोऽथ ॥ शिशिर ऋतु का शीत प्रधान पवन बहने लगा। वह तुषार-कणों से युक्त और धूए से भी अधिक श्याम शरीर वाला था। उसके कारण लोगों के दांत बार-बार किटकिटाते थे। ५४. अङ्गारवान्या परितप्यमानहस्तैर्ददानास्त्वधरोष्ठबिम्बे । प्रणाभिरामे 'मदन' मृगाक्ष्यो, यूनो जराभीरु मदीदिपच्च ॥ सुन्दरियां अंगीठी से तपाये जाने वाले हाथों से, व्रण से सुन्दर अपने अधर और ओष्ठ बिम्बों पर मोम लगाती हुई युवकों में कामवासना दीप्त कर रही थीं। ५५. तल्पेषु तूलच्छववेष्टितेषु, केचिद्धसन्तीपरिभासुरेषु । क्लिासमेहेष्वधिशय्य निन्युर्जाड्यञ्च विस्मेरदृशोपगूढाः ॥ अंगारधानी से गरम किए हुए विलासगृहों में, तूल से आच्छादित शय्याओं पर, अपने पत्नियों के आलिंगनपाश में बद्ध होकर कुछ युवकों ने ठंड को बिताया। ५६. बभूव तस्मिन् समये कुचोष्णरुचां यदुष्मैव तुषारहृत्य । सदोन्नता एव विपत्तिहत्य , भवन्ति सेव्या हि त एव जाड्ये ॥ उसं शीतकाल में स्तनों की उष्ण-रश्मियों की ऊष्मा ही शीत-निवारण करने वाली थी। क्योंकि सदा उन्नत रहने वाले ही विपत्ति का हरण करते हैं। अतः जडता (शीतकाल यो विपत्ति) के समय उनकी ही उपासना करनी चाहिए। ५७. स वामनेत्राकुचधर्मनीतोत्कण्ठोयमाकण्ठनिपीतकामः । वासालयान्तविशदांशुवासास्तुषारगर्व शमयाम्बभूव ॥ उज्ज्वल वस्त्रधारी महाराज भरत ने स्त्रियों के स्तनों की ऊष्मा से उत्कंठित होकर आकण्ठ काम का निपान कर, अपने शयनगृह में तुषार के गर्व को शान्त किया। . . ५८. इत्यं स सर्वर्तुविलासलास्यचिलोललीलः कलयाञ्चकार। सरान् विमानव मतोन्तरिक्षे , चित्रातिरेकाञ्चितधाऽथ वृष्ट्या ॥ १. अवश्यायः-तुषार (अवश्यायस्तु तुहिनं-अभि० ४।१३८) २. कृशानुध्वजः-धूआं (अभि० ४।१६४) ३. ममम -मोम । ४. जराभीरु:-कामदेव (मदनो जराभीरुरनङ्ग:-अभि० २।१४१)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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