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________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ८१. जगतीत्रितये विदितं चरितं , सततं भवतात्तव भारतराट् ! रतरागपराङ मुखता हृदि यद् , गृहिवासपदेप्यभवद् भवतः॥ 'भारत के सम्राट् ! आपका यह चरित्र तीनों लोकों में सतत विदित हो कि आपके हृदय में गृहस्थावस्था में भी सब विषयों के प्रति पराङ्मुखता रही है।' ८२. निष्क्रान्तो भरतेश्वरोऽसुरसुरैरित्थं तदा संस्तुतो, भूपालायुतसंयुतो भवतु नः सर्वार्थसंपत्तये। सूनुः सूर्ययशा बभार वसुधाभार तदीयस्ततो, लक्ष्मीश्चामरहासिनीरनुभवञ्श्वेतातपत्राङ्किताः॥ असरों और देवताओं द्वारा इस प्रकार स्तुति प्राप्त करते हुए भरत ने अभिनिष्क्रमण किया। उनके साथ हजारों राजे थे। उनका अभिनिष्क्रमण हमारे सभी प्रयोजनों की सिद्धि के लिए हो । भरत के ज्येष्ठ पुत्र सूर्ययशा ने श्वेतछत्र पर अंकित तथा देवताओं की संपदा का भी उपहास करने वाली लक्ष्मी का अनुभव करते हुए चक्रवर्ती भरत का राज्यभार संभाला। . .. ५३. पुण्योदयाद् भवति सिद्धिरिहाप्यशेषा, पुण्योदयात् सकल बन्धुसमागमश्च । पुण्योदयात् सुकुलजन्मविभूतिलाभः, पुण्योदयाल्लसति कोतिरनुत्तराभा ॥ इस संसार में सारी सिद्धियां पुण्योदय से संपन्न होती हैं । पुण्योदय से ही सभी बंधु-बांधवों का समागम होता है। पुण्योदय से ही सकुल में जन्म और संपत्ति का लाभ होता है तथा पुण्योदय से ही अनुत्तर शोभावाली कीर्ति प्रसृत होती है । -इति भरतबाहुबलिकेवलोत्पत्तिवर्णनो नाम अष्टादशः सर्गः इति श्रीपुण्यकुशलगणिविरचितं भारतबाहुबलिमहाकाव्यं समाप्तम् ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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