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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वह श्वेत-पीत चन्द्रमा की भाँति निर्मल छत्रों के प्रभामंडल से विभूषित था। वह गंगा नदी के तट की भाँति विस्मयकारी लग रहा था। जैसे गंगा नदी के तट पर राजहंसों का समूह क्रीड़ा करता है वैसे ही वहाँ उत्तम राजाओं के समूह कीड़ा करते थे।
६. आस्थानी भरतेशस्य, सुधर्मेव सुरप्रभोः ।
विस्फुरद्विबुधा रेजे , गुरुमङ्गलधारिणी॥
'विशाल मंगल को धारण करने वाली तथा विबुधजनों से युक्त महाराज भरत की वह सभा इन्द्र की सुधर्मा सभा की भाँति शोभित हो रही थी।
७.
द्रुतं राजानमानम्य, वेत्रपाणिरदोऽवदत् । एतास्त्वत्प्रेषिताश्चारास्तिष्ठन्ति द्वारि वारिताः ॥ .
इतने में ही द्वारपाल ने महाराज भरत को नमस्कार करते हुए यह कहा- 'देव ! आप द्वारा भेजे गए गुप्तचर आ पहुँचे हैं और वे द्वार पर रुके हुए हैं।'
८. एतान् प्रवेशयाह्नाय', राजेति स्वयमोरितः।'
श्रीविलासानिव न्यायः , स भूपं ताननीनयत् ॥ .
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महाराज भरत ने स्वयं कहा-'उन्हें शीघ्र ही भीतर ले आओ।' तब द्वारपाल ने उन गुप्तचरों को राजा के समक्ष उपस्थित किया जैसे न्याय के समक्ष लक्ष्मी के सारे विलास उपस्थित किये जाते हैं।
६. तानपृच्छदिति क्षमापो , निनंसु में स बान्धवः ।
युद्धश्रद्धापरः किं वा , निर्णायाख्यत हेरिकाः !॥
भरत ने उनसे पूछा- 'हे गुप्तचरो! तुम यह निर्णय करके बताओ कि मेरा भाई मेरे सामने नत होना चाहता है या युद्ध करना चाहता है ?'
१. आस्थानी-सभा। २. किं विशिष्टा आस्थानी ? विस्फुरद्विबुधा--विराजत्पंडिता, सुधर्मापक्षे–विराजविबुधा
देवाः, पुनः किं विशिष्टा ? गुरुमंगलधारिणी-विशालश्रेयःशालिनी, सुधर्मापक्षे-वाक्पति
वक्रावहा। ३. अह नाय--शीघ्र (मझ्वह नाय च सत्वरं-अभि० ६।१६६) ४. निनंसुः-नमश्चिकीर्षः।