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________________ एकादशः सर्गः २०७ १०. इत्याकर्ण्य वचो भर्तस्तेषामेकोऽभणच्चरः । निर्बन्धाद' बन्धुसंबन्धं', मन्मुखाच्छृणु सांप्रतम् ॥ अपने स्वामी का यह वचन सुनकर, उनमें से एक गुप्तचर ने कहा-'राजन् ! आप मेरे मुख से आग्रहपूर्वक अपने भाई का वृत्तान्त सुनें ।' ११. त्वदाज्ञाभ्रमरी भूप ! , नास्त तद्देशचंपके । सुमनोभिरताप्युच्चैर्भाविनी हि गरीयसी ॥ 'राजन् ! देवताओं द्वारा अत्यन्त अभिप्रेत आपकी आज्ञा रूपी भ्रमरी बाहुबली के देश के चम्पक वृक्षों पर भी नहीं ठहरती । क्योंकि भवितव्यता महान् होती है।' १२. स्वामिन् ! सोमवधूः स्वीया , बलात् परकथिता । .. उन्निद्रदर्पदावाग्निरेष चक्र चरैरिति ॥ 'स्वामिन् ! अपनी सीमा रूपी वधू शत्रु के द्वारा हठात् कथित हो रही है, यह कहकर बाहुबली के गुप्तचरों ने बाहुबली को जागृत दर्प रूपी दावाग्नि वाला बना दिया।' १३. अवामस्त वचस्तेषां , पूणिताक्षस्ततस्त्वसौ । . रवमस्थिभुजां स्वैरमुन्मत्त इव वारणः ।। 'दर्प की निद्रा से घृणित लोचन वाले बाहुबली ने उन गुप्तचरों के कथन की अवगणना की जैसे उन्मत्त हाथी कुत्तों के शब्दों की भरपूर अवगणना करता है।' १४. 'बहुकृत्वः प्रविज्ञप्तो , भटैः शौर्यरसार्णवैः । यात्रामेरी स सावज्ञमात्मभृत्यैरवादयत् ॥ 'महाराज भरत ! पराक्रम के समुद्र सुभटों द्वारा बहुत बार निवेदन करने पर बाहुबली ने अपने सेवकों से अवज्ञापूर्वक यात्रा-भेरी बजवाई।' १. निर्बन्धः-आग्रह (निर्बन्धोऽभिनिवेशः स्यात्-अभि० ६।१३६) २. बन्धुसंबन्धं-बाहुबलिव्यतिकरम् । ३. इससे आगे का संपूर्ण वर्णन महाराज भरत के गुप्तचरों द्वारा कथित है। उन्होंने बाहुवला . के प्रदेश में जो कुछ देखा-सुना था, उसका पूरा वर्णन भरत के समक्ष प्रस्तुत किया है। ४. अस्थिभुक्-कुत्ता (अस्थिभुग भषणः सारमेय:-अभि० ४।३४५) ५. पाठान्तरं-रदापयत् ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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