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एकादशः सर्गः
१. अथाऽसौ कल्पिताकल्पो', विमानमिव वासवः ।
अनूनश्रीभराकोणं, तस्थावास्थानमन्दिरम् ।। भूपालकोटिकोटीर पद्मरागप्रभाभरैः। प्रभातमिव रक्तांशु , हरत्प्रादुर्भवत्तमः ॥ राकामुख'मिवोदञ्चच्चन्द्रोदयविराजितम् । रत्नमौवितकनक्षत्रतारामण्डलमण्डितम् ॥ चारुवारवधूधूतचामरांशुकरम्बितम् ।
सुधाम्भोधिरिव क्षीरं , शीतांशुकरचुम्बितम् ॥ ५. कुन्देन्दुविशदच्छत्रप्रभामण्डलमण्डितम् ।
विलसद्राजहंसौघ, गङ्गातीरमिवाद्भुतम् ॥
-पञ्चभिः कुलकम् ।
महाराज भरत ने वेष बदला। वे अत्यन्तं शोभास्पद उस आस्थान मन्दिर में उसी प्रकार आ बैठे जैसे इन्द्र विमान में आ बैठता है । वह आस्थाव मन्दिर हजारों राजाओं के मुकुटों में जड़े हुए पद्मराग के प्रभा-समूह से प्रभात में उगने वाले लाल सूर्य की भाँति लग रहा था और वह प्रकट होने वाले अंधकार का नाश कर रहा था। रत्न-रूपी नक्षत्र और मौक्तिक रूपी तारागों से भूषित वह आस्थान मन्दिर चन्द्रोदय से शोभित पूर्णिमा की संन्ध्या की तरह शोभित हो रहा था। वहाँ सुन्दर वारांगनायें चामर झल रही थीं। उनकी इस क्रिया से प्रस्फुटित किरणों से वह मिश्रित था। उस समय वह ऐसा लग रहा था मानो कि चन्द्रमा की किरणों से संयुक्त क्षीर समुद्र का पानी हिलोरें ले रहा हो।
१. आकल्पः-वेष (वेषो नेपथ्यमाकल्प:-अभि० ३।२६९) २.. कोटीरं-मुकुट (मौलि: किरीटं कोटीरं-अभि० ३।३१५) ३. राकामुख-पूर्णिमा की संध्या (पूर्णमासिप्रदोषं) . ४. करम्बितम्-मिश्रितम् । ५. शीतांशु....."-चन्द्रकिरणसंयुक्तम् । ६. विलसद्राजहंसौघं-क्रीडद्भूपालश्रेष्ठसंदोहं। गंगातीरपक्षे-मिलत्कलहंससंघातम्।