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________________ षोडशः सर्गः . ३१५ ३४. मन्मथोऽपि कुसुमैः प्रयुयुत्सुनपि किं मृतिमनङ्गजिघांसोः। ईरयेयुरिति नीतिविदस्तद् , विग्रहो न कुसुमैरपि कार्यः॥ 'फूलों से युद्ध लड़ने वाला कामदेव भी क्या शंकर से नहीं मार डाला गया ? नीतिमान् व्यक्ति यह प्रेरणा देते हैं कि विग्रह फूलों के द्वारा भी नहीं करना चाहिए।' ३५. तन्निवार्य सकलं हयपत्तिस्यन्दनद्विपयुगान्तमनीकम् । योधनीयमथ मंक्षु भवद्भ्यां , यश्च यं जयति तस्य महीयम् ॥ 'इसलिए घोड़े, पैदल-सैनिक, रथ और हाथियों की इस युगान्तकारी सेना का निवारण कर आप दोनों शीघ्र ही परस्पर युद्ध करें। जो जिसको जीत लेगा, भूमी उसी की होगी।' ३६. दृष्टि-मुष्टि-रव-यष्टिविशेषर्योधनीयमितरैर्न तु किञ्चित् । ज्ञायते च युवयोरपि युद्धोत्साहसाहसबलाभ्यधिकत्वम् ॥ 'आप दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध, शब्द-युद्ध और यष्टि-युद्ध--इनसे लड़ें किन्तु अन्य अस्त्रों से न लडें । इनसे ही आप दोनों का युद्ध के प्रति उत्साह, साहस और बल-इन तीनों की अधिकता जानी जा सकेगी। ३७. . एष आहव उरीकरणीयस्तुष्टिमापय मनःसु न' इत्थम् । शीतकान्तिकिरणा इव सन्तस्तोषयन्ति जगतीं निखिला हि ॥ 'इस प्रकार के युद्ध को स्वीकार कर हमारे मन को प्रसन्न करें। सन्त लोग. चन्द्रमा की किरणों की भांति समस्त जगत् को प्रसन्न करते हैं, संतुष्ट करते हैं।' ३८. ते तथेति कथिते जननेत्रा , स्वःसदः प्रमदमाकलयन्तः। सर्वकामसुभगं भवदीयं , कृत्यमस्त्विति निगद्य निवृत्ताः॥ जननायक भरत के द्वारा यह स्वीकार कर लेने पर देवता बहुत प्रसन्न हुए और 'आपका यह कार्य सर्वथा सुभग है'-यह कहकर वे अपने-अपने स्थान पर चले गये। ३६. कालपृष्ठधनुरपितपाणि , कुञ्जरारिमिव सम्भ्रममुक्तम् । हव्यवाहमिव दीप्तिकलिं , स्वर्णपर्वतमिवोन्नतिमन्तम् ॥ ४०. भागधेयवदनाकलनीयं , मूर्तिमाश्रयदिवाधिकशौर्यम् । दुःप्रधर्षतमकान्तिमिवार्क , प्रेतनाथमिवाहवभूम्याम् ॥ १. अनङ्गजिघांसुः-शंकर। २. न:-अस्माकम् ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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