________________
३१४
भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जैसे सर्प सरल-सीधा होकर बिल में पेठ जाता है, वैसे मेरी आयुधशाला में चक्र प्रविष्ट नहीं हुआ । इसलिए जैसे मर्मवेधी शस्त्र से शरीर पीड़ित होता है, वैसे ही मेरा मन इस घटना से पीड़ित हो रहा है।' २९. मानवा जगति मानभृतः स्युः , प्रायशस्त्विति सुरा अपि वित्थ ।
तद् विचार्य वदतोचितमस्मान् , मानहानिरधुना न यथा मे ॥
'संसार में प्रायः मनुष्य मानशाली होते हैं , यह आप सब देवता भी जानते हैं। इसलिए आप विचार कर हमें कोई उचित मार्ग दिखाएं, जिससे आज मेरी मान-हानि भी न हो।' ३०. ते सुरा अपि तदीयगिरेति , प्रार्थिताः पुनरपीदमशंसन् ।
साधु साधु वृषभध्वजसूनो !, व्याहृतं ह्यघमुशन्ति न सन्तः।। भरत की वाणी से इस प्रकार प्रार्थित होकर उन देवताओं ने पुनः कहा--'ऋषभ के पुत्र ! आपने बहुत ठीक कहा है । क्योंकि सज्जन पुरुष पाप की कामना नहीं करते।' ३१. अस्मदुक्तिकरणकपटुत्वं , विद्यते तव हिताहितवेदिन् !।
यत् सुधां किरति तारकराजसून चित्रममला हि सदैवम् ॥ 'हे हित और अहित के ज्ञाता ! आप हमारी उक्तियों को क्रियान्वित करने में अत्यन्त पटु हैं । चन्द्रमा का पुत्र बुध अमृत को बिखेरता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि पवित्र व्यक्ति सदा ऐसा ही करते हैं।'
३२. सद्बलाबलरणे विजयश्रीराप्यते जगति चैकतमेन ।
तुल्यतां पुनरवाप्य विधत्ते ; संशयं मनसि सैव नयज्ञ !॥
'जिस रण में एक सबल और दूसरा अबल होता है, वहां सबल व्यक्ति ससार में विजयश्री को प्राप्त कर लेता है। किन्तु नयज्ञ ! जहां दोनों पक्षों में तुल्यता होती है, वहां विजयश्री भी मन में संशय करने लग जाती है।'
३३. वंश एष शतधा परिवृद्धस्तुङ्गतां कलयतिस्म युगादेः।
युद्धपशुहननेन युवाभ्यां , छेद्य एव न कथञ्चिदवाप्य ॥ 'ऋषभदेव का यह वंश सैकड़ों प्रकार से वृद्धिंगत होता हुआ बहुत उन्नत हो गया है। इसको प्राप्त कर आप दोनों युद्ध रूपी पशु के प्रहार से इसका किसी प्रकार हनन न करें।
१. तारकराजसू:-बुध ।