________________
षोडशः सर्गः ..
३१३ 'नरेन्द्र ! अपने भीतर उत्पन्न उदग्र रोग की भांति युद्ध में बन्धुजनों को मार कर आप समुद्र पर्यन्त इस पृथ्वी का उपभोग करेंगे। किन्तु यह आपके पास कितने काल तक स्थिर रह सकेगी?।' २३. त्वत्पितुर्जगति कोतिभिरारात् , पौणिमा भवति भारतराज !
द्राक् कुहु'स्तदितराभिरमूभिर्बन्धुघातकलुषाभिरिहैव ॥ 'भारतेश्वर ! आपके पिता की.कीति से जगत् में पूर्णिमा होती है। किन्तु बंधुओं के घात से कलुषित आपकी इस अकीत्ति से यहां शीघ्र ही अमावस्या हो जाएगी।'
२४.
आधिपत्यरभसाद् विगृहीतिर्यत्त्वया व्यरचि साधु न चैतत् । बन्धुना सह कुरुष्व गिरा नः , सन्धिमेव नृप ! युद्धमपास्य ॥
'राजन् ! आपने अपने आधिपत्य के बल पर यह विग्रह प्रारंभ किया है । किन्तु आपने यह उचित नहीं किया। हमारी बात मानकर आप युद्ध को छोड़, अपने भाई के साथ संधि ही करें।' २५. ईरणादुपरतेषु सुरेष्वित्याह भारतपतिः स्फुटमेतान् ।
बूथ यूयमिह यत् तवशेषं , सत्यमेव हृदयं मनुते मे ॥ इस प्रकार प्रेरणा देकर देवता जब उपरत हुए तब भरत ने स्पष्ट रूप से उनसे कहा'आप जो कुछ कहना चाहें वह सब कुछ कहें । मेरा हृदय यथार्थ ही मानता है।' २६. किं करोमि लघुरेष मदीयो , बान्धवो न मतिमानभिमानात् ।
मानमिच्छति गुरुर्लघुवर्गाज्जीवनं जलनिधेरिव मेघः॥ 'क्या करूं, मेरा यह छोटा भाई बाहुबली अभिमान के कारण बुद्धिमान् नहीं है। बड़ा छोटे से सम्मान चाहता है जैसे मेघ समुद्र से पानी चाहता है।' २७. भूभुजोषिकबलाः क्षितिपीठे , वैरिवर्गमवधूय भवन्ति ।
मन्थनादुदनिधेः कमलाप्तिः, संबभूव किल नन्दकपाणेः ॥ 'राजा वैरियों का उन्मूलन करके ही इस भूमि पर अधिक बलशाली हो सकते हैं। समुद्र के मन्थन से ही विष्णु को लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी।'
२८. आयुषं न मम चायुधधाम्नोन्तविवेश सरलत्वमिवाऽहेः ।
तेन मे तुवति मानसमेतद् , गात्रमस्त्रमिव मर्मविभेदि । १. कुहुः-अमावस्या (अभि० २१६५) २. नन्दकपाणे:-विष्णोः-नन्दकः (असिः) पाणी अस्ति यस्य, स तस्य(अभि०२।१३६ असिस्तु नन्दकः)