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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १७. मान एव भव ता विदघेऽयं , नो पुनर्भरतराज ! वितर्कः।
बन्धुना सह क एष युगान्तोऽनून आहव इयांस्तव योग्यः ? 'हे भरतराज ! आपने युद्ध करने में अहं ही प्रदर्शित किया है, विमर्श नहीं किया। भाई के साथ इतना बड़ा युगान्तकारी युद्ध करना आपके लिए उचित है ?' १८. राजकुञ्जर ! तवाहवलीला , तातसृष्टितरसंचयमित्य।
संबभूव मदसंभृतिभर्तुः , सर्वदोन्नततयाभ्यधिकस्य ॥ . . . 'श्रेष्ठ राजन् ! सर्वदा उन्नत होने के कारण आप अधिक मद के भार को धारण कर रहे हैं। आपकी यह युद्ध-लीला पिता ऋषभ की सृष्टि रूपी तरु-समूह के विनाश के लिए प्रारम्भ हुई है।' . १६. केवलं वसुमतीह दयेशाः , प्राणिपीडनवशादुपयन्ति। . .
दुर्गतिर्न हि भवानिह तादृक् , सांप्रतं रणरतिर्भवतः का? . 'स्वामी भूमी रूपी रमणियों को प्राणी-पीडा के द्वारा ही प्राप्त करते हैं। आप वैसे दरिद्र नहीं हैं । फिर अब आपकी रण के प्रति यह कैसी रति ?'
२०. निर्दयत्वमधिकृत्य नरेन्द्र तिरोपि तनया अपि घात्याः। . मूकृते वसुमती न तदीया , पातकं हि हननस्य चिराय॥
'भूमी पर अधिकार करने के लिए राजे निर्दयी बन जाते हैं और अपने भाइयों तथा पुत्रों को भी मार डालते हैं । किन्तु भूमी उनकी नहीं होती। केवल हत्या का पाप चिरकाल तक उनके साथ रहता है।' २१. संगरो गर' इवाकलनीयो , यं श्रिता मृति'मयन्ति हि माः । .. प्राप्य तत्र विजयं निलये स्वे , ये व्रजन्ति भुवि तेऽधिकपुण्याः॥
'युद्ध को विष की तरह मानना चाहिए । इसका आश्रय लेकर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं । जो पुरुष विजय प्राप्त कर अपने घर चले जाते हैं, वे जगत् में अधिक पुण्यशाली होते हैं।' २२. आत्मनीनमिव दोषमुदग्रं , बान्धवं युधि निहत्य नरेन्द्र !!
मोक्ष्यते नु भवतोदधिनेमि , त्यसो तब कियद् वसुधेयम् ?
१. गरः - कृत्रिम विष (गरश्चोपविषं च तत्-अभि० ४।३८०) २. मृतिः-मृत्यु (मृतिः संस्था मृत्युकालो-अभि० २।२३७)