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षोडशः सर्गः
३१.१.
है ? यह सूर्य और चन्द्रमा की भांति कालबोध - मृत्युबोध कराने वाला और समस्त प्राणियों का संहार करने वाला है ।'
१२. आंविनेतुरुवभूत् किल सृष्टिर्वामिवाखिलविशेषविधातुः ।
किन्तु वां स्फुटमियं भगिनी वां मर्द्यते कथमसौ तत इत्थम् ?
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'प्रथम तीर्थंकर तथा समस्त विशेष विधियों के विधाता भगवान् ऋषभ से जैसे आप दोनों उत्पन्न हुए है, वैसे ही यह सृष्टि भी उन्हीं से उत्पन्न हुई है । इस प्रकार यह सृष्टि स्पष्ट रूप से आपकी भगिनी है । तो फिर आप इस सृष्टि का ऐसा मर्दन क्यों कर रहे हैं ?"
१३. युग्मिधर्मनिपुणत्वमलोपि, श्रीयुगादिजिनपेन युवाभ्याम् । स्वीकृतं तदनु सृष्टिविमर्दात् सत्सुतैर्न पिता व्यतिलध्यः ॥
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'श्री युगादिदेव ने युगल-धर्म की निपुणता का लोप किया । आप दोनों ऋषभ द्वारा सृष्ट सृष्टि का मर्दन कर उन्हीं के चरण चिन्हों पर चल रहे हैं । क्योंकि अच्छे पुत्र पिता के पथ का अतिक्रमण नहीं करते ।'
१४.
त्वं तु भारतपते ! स्थितिमूलं, ज्येष्ठ एव तनयेषु युगादेः । आदिदेवसदृशोऽसि गुणैस्तत्, ताततो न तनयो हि भिनत्ति ।।
'भारतेश्वर भस्त ! आप तो मर्यादा के मूल हैं । आप ऋषभ के पुत्रों में ज्येष्ठ हैं । आप गुणों में आदिदेव के तुल्य हैं क्योंकि पुत्र पिता से भिन्न नहीं होता ।'
१५.
१६.
अत्र यत्तरणिरस्तमुपेतः, संमदो हुतवहे विनिवेश्यः । 'सान्धकारपटलेऽञ्जनकेतुस्तत्पुरो भवति नक्तमिहौकः ॥
'संसार में सूर्य ( ऋषभदेव ) अस्त हो गया है, इसलिए हमें अपना उल्लास अग्नि में स्थापित करना चाहिए। रात्रि में अन्धकारपटल में जनता के सामने दीप ही शरण होता है ।'
भूभृतः समरमप्यवलेपाद, भूकृते किमुत यद् रचयन्ति । तत्तदीयमतिरस्य विमर्श, भङ्गसंशयवशादनुशेते ॥
'राजे अहंकार के कारण युद्ध करते हैं अथवा भूमि के लिए करने में उनकी बुद्धि विकल्प के संशय में पड़कर ( वास्तविक के कारण) पश्चात्ताप करती है ।'
इस बात का विमर्श
निर्णय न कर सकने
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