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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सुभट इस प्रकार कह रहे थे-'इस रणभूमी में शत्रुओं के शस्त्रों से मरे हए वीर 'योद्धाओं ने क्या देवलोक को भी संकीर्ण बना दिया है, जिससे कि देवों ने हम
सबको युद्ध करने से रोका है ?' सिंहनाद से मुखरित होने वाले कुछ सुभटों ने यह कहा-'ये शत्रु-सुभट युद्ध में घायल होकर हमारे आगे से चले जा रहे हैं । यह अत्यन्त लज्जास्पद बात होगी।' कुछ सुभट रथ की ध्वजा में अपने शरीर को लपेटे हुए थे। कुछ हाथियों पर आरूढ थे और घोड़ों पर सवार कुछ सुभट ललाट से गिरने वाली श्रम-बिन्दुओं से शोभित हो रहे थे। ऋषभदेव के शासन की प्रभावना करने वाले देवताओं की वाणी से निषिद्ध होकर कुछ सुभट युद्धोत्सुक होने पर भी चैत्य की अद्भुत रचना को देखते हुए बैठ गए। .
५. देवताः सपदि भारतराज , मूतिमत्य इव सिद्धय एवम् ।
अभ्यधुर्दलितवैरविशेषा , देवसेव्यचरणं करुणाढयाः ॥ .
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देव-सेव्य चरण-कमल वाले चक्रवर्ती भरत के पास वैर विशेष का शमन करने वाले दयालु देवता मूर्तिमान् सिद्धियों की भांति सहसा आए और इस प्रकार बोले--
९. आहवः किमधुनष युवाभ्यां , वारणाश्वरथपत्तिविमर्दी ।
कल्पकाल इव निर्मित एवं , यश्च भापयति देवमनांसि ?
'आप दोनों ने कल्पान्तकाल की भांति हाथी, घोड़े, रथ और पदाति सेना को नष्ट करने वाले इस युद्ध को क्यों प्रारम्भ किया है ? यह देवताओं के मन को भी भयभीत कर देता है।'
१०. यद् युवां वृषभनाथतनूजौ , यद् युवां सुकृतकेतकमृङ्गो।
यद् युवां चरमविग्रहधारौ, यद् युवां स्थितिमवेथ इनोक्ताम्॥ 'आप दोनों ऋषभ के पुत्र हैं। आप दोनों सुकृत रूपी केतकी के फूलों पर विचरण करने वाले भ्रमर हैं । आप दोनों चरम-शरीरी हैं। आप स्वामी ऋषभ द्वारा उक्त स्थिति को जानते हैं।'
११. तत्कथं समर एष भवद्भ्यां , प्रावृतत् क्षय इवातिरताभ्याम् ।
कालबोष इव मित्र विधूभ्यां , सर्वसंहरणयोगविधायी॥ . 'फिर भी कलह में,रत आप द्वारा प्रलयकाल की भांति यह युद्ध क्यों प्रवृत्त हुआ
१. इनः-स्वामी (ईशितेनो नायकश्च-अभि० ३।२३) २. मित्रः-सूर्य (अभि० २०१०)