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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४१. ते तदैव भरतानुजमीयुरिदा इव नदीहृदयेशम् । कोपताम्रनयनोल्बणवक्त्र, व्याहरनिति गिरानुनयाच्च ॥
___ --त्रिभिविशेषकम् । जैसे बादल समुद्र के पास जाते हैं, वैसे ही वे देवता भरत से बातचीत कर बाहुबली के पास आए। महाराज बाहुबली के हाथ में कालपृष्ठ धनुष्य था। वे अष्टापद की भांति निःशंक, अग्नि की भांति अत्यन्त दीप्त, मेरु पर्वत की भांति उन्नत, भाग्य की भांति अगम्य, मूर्तिमान् बने हुए अधिक शौर्य वाले, सूर्य की भांति दुष्प्रधर्षतम कान्ति वाले, रणभूमी में यमराज के सदृश और क्रोध से रक्त हुए नयन से युक्त आनन वाले थे। देवताओं ने अनुनयभरी वाणी में कहा- . ४२. आदिदेवजननाधिसितांशो ! , वैरिवंशदहनकदवाग्ने !।
धैर्य मन्दरगिरीन्द्र ! इदानीं , निर्जरैस्त्वमसि विज्ञपनीयः ॥ .
'हे ऋषभवंश रूपी समुद्र के चन्द्रमा !, वैरियों के वंश-दहन के एक मात्र दावाग्ने !, धर्य रूपी मन्दर पर्वत !, अब आपको देवता कुछ कहना चाहते हैं।'
४३. नीतिमण्डप ! पराक्रमसिन्धो ! , को गुरुं प्रणमतस्तव दोषः ।
सैन्धवीयसलिलस्य हि हानिः , का भवेदुपयतो जलराशिम् ?
'हे नीति के मंडप !, हे पराक्रम के समुद्र !, बड़े भाई को प्रणाम करने में आपको क्या दोषापत्ति है ? क्योंकि समुद्र में मिलने वाली नदी के पानी की क्या कोई हानि होती है ? कुछ भी नहीं।' ४४. चेद् विलुम्पसि गुरूनभिमानात्तद् गुरून् जगति मानयिता कः ?
हीयते खलु गुरोरपि बुद्धया , यत्र तत् किमितरैरवगाह्यम् ?
'यदि आप बड़े के प्रति होने वाले व्यवहार का अहंकार के वशीभूत होकर लोप करते हैं तो भला संसार में दूसरा कौन होगा जो बड़ों को मान देगा? आप जैसे व्यक्ति भी यदि गुरुत्व की बुद्धि से क्षीण हो जाते हैं तो भला दूसरे व्यक्ति गुरुत्व की बुद्धि का अवगाहन कैसे करेंगे?'
४५. ज्येष्ठबान्धववधाय करस्ते , कि प्रभुर्भवति भूधन ! हा हा ! ।
गुर्वभक्तिनिरतेषु तवास्तु , प्रागुदाहरणमाहितनिन्धम् ॥ 'राजन् ! आपका हाथ बड़े भाई के वध के लिए क्या समर्थ है ? हा ! हा ! तब तो गुरुजनों के प्रति अविनय करने वाले व्यक्तियों में आपका निन्द्य उदाहरण पहला होगा।