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षोडशः सर्गः ४६. सर्वदैकसुकृती जगदन्तश्चेद् भवानपि भवेद् गुरु लोपी।
अन्धकाररिपुरेष विभाति , कि तमोभिरुपलिप्यत एव ॥
'संसार में आप सर्वदा अत्यन्त पुण्यशाली हैं। यदि आप भी बड़ों को मारने वाले होते हैं तब तो अन्धकार का शत्रु यह सूर्य क्या अन्धकार से व्याप्त नहीं हो जाएगा?'
सभिरेव विहिता स्थितिरुच्चैः , संभवेदिह सदाचरणाय ।
स्वां स्थिति परिजहाति पयोधिः , किं कदाचन विना क्षयकालम् ? 'सज्जन व्यक्तियों ने सदाचरण के लिए ही ऊंची मर्यादाओं का विधान किया है । क्या कभी प्रलयकाल के बिना समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है ?'
४८. तातवंशभवनं भवता यत् , संव्यधायि शुचिकीतिसुधाभिः ।
ज्येष्ठबन्धुवधपङ्कनिषेकर्मा तदेव मलिनीकुरु राजन् ! ॥
'आपने अपने पिता ऋषभ के वंश-प्रासाद को पवित्र कीत्ति रूपी सुधा से धवलित किया है। राजन् ! उसी प्रासाद को आप ज्येष्ठ बंधु के वध रूपी कीचड़ के सिंचन से मलिन न करें।
४६. स्यप्ती वसुमती न च लक्ष्मी वितं न न सुखं न च दाराः।
एकमेव शरदिन्दुकराभं , शाश्वतं किल यशोऽपयशश्च ॥ 'राजन् ! इस संसार में भूमी, लक्ष्मी, जीवन, सुख और स्त्री-ये स्थायी नहीं हैं । केवल शरद चन्द्रमा की किरणों की आभा वाला यश या अपयश ही स्थायी रहता है।
५०. विस्मयो न युवयोरपि शक्तावंसयोरिव युगादिजिनस्य ।
सृष्टिरत्र सकलैव वृथा वामीदृशेन समरेण तदा स्यात् ।। 'आप युगादिदेव के दो स्कंधों की भांति हैं, इसलिए आप दोनों के पराक्रम में कोई । विस्मय नहीं होता। किन्तु इस प्रकार के संग्राम से यह सृष्टि वृथा ही हो जाएगी।' ५१. इत्युदीर्य विरता वचनेभ्यो , वर्षणेभ्य इव वारिमुचस्ते ।
तानुवाच च बली बहलीशो , धैर्यमेदुरवचोभिरमीभिः ॥ इतना कहकर देवता बोलने से विरत हो गए, जैसे बादल बरस कर विरत हो जाते हैं । तब पराक्रमी बाहुबली ने धीर और स्निग्ध वाणी में उनसे इस प्रकार कहा५२. देवताः ! किमपि वित्त ममायं , बान्धवश्छलबलोत्कटचित्तः।
मां नुनोद समराय कथञ्चित् , प्रेतनायकमिव प्रलयाय ?