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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् उन सिंहनादों से हाथी भी मृगों की तरह संत्रस्त हो गए। भयभीत होकर वल्लरियां वृक्षों से और स्त्रियां अपने पतियों से जा लिपटीं। सिंह भी अपनी गहरी गुफाओं में जा छिपे और भुजंगमों ने नागलोक का आश्रय ले लिया।
२४. उत्साहं द्विगुणमवाप्य तत्कनिष्ठो , ज्यायोभिर्हरिनिनदिगन्तगाहैः।
चक्राङ्गिध्वनितभराहितावकाशं , ब्रह्माण्डं न्यभरदुदैरिवाभ्रम भ्रम् ॥
यह सुनकर छोटे भाई बाहुबली का उत्साह द्विगुणित हो गया। जैसे पानी के द्वारा बादल आकाश को भर देता है वैसे ही उन्होंने दिगन्तों तक अवगाहन करने वाले दीर्घ सिंहनादों से ब्रह्माण्ड को भर दिया जो कि चक्रवर्ती के सिंहनादों की ध्वनि से भर जाने पर भी कुछ खाली था।
२५. तज्जन्य प्रकटत मैकलास्यलीला , हर्यक्षध्वनिनिचयाभिनन्द्यनाटयाः।
भूरङ्ग परिननृतुर्नटा इवाङ्गाः , साश्चर्य विबुधमनः समादधानाः ॥ उस समय उन दोनों के अंग भूमी के. रंगमंच पर नटों की भांति नाच रहे थे । युद्ध का ताण्डव उनका साथ दे रहा था। उनका नर्तन सिंहध्वनि के निचय से अभिनन्दनीय लग रहा था और वे आश्चर्यपूर्ण ढंग से देवताओं के मन को समाहित कर रहे थे।
२६. हा शैत्यं तुहिनगिरिरितीरयन्त्यः , किन्नर्यः प्रकटितगाढदन्तवीणाः।
रुद्राणीगुरुगिरि गह्वरं निलीनाः , सद्धर्मस्थितय इवाहदुक्तवाक्यम् ॥
'हा ! कितनी सर्दी ! यह तो हिमगिरि है'-इस प्रकार कहने वाली किन्नरियों के दांत किटकिटाने लगे-दांतों की वीणा स्पष्ट रूप से बजने लगी । वे हिमालय की गुफाओं में लीन हो गईं, जैसे सद्धर्म की स्थितियां अर्हत्-वाक्यों में विलीन हो जाती हैं।
२७. भीताभिविबुधवधूभिरभ्रमार्गान् , मञ्जीरा रवमुखरीकृतान्तरालात् ।
आलिल्ये निबिडतया प्रियस्य कण्ठो , देवानां तदनि युद्धमुत्सवाय ॥
१. अभ्रं-बादल। २. अनं—आकाश। ३. जन्यं युद्ध। ४. भूरङ्ग-भुवः रङ्ग-नाट्यस्थले (स्थानं नाट्यस्य रङ्गः स्यात्-अभि० २।१६६) ५. रुद्राणीगुरुगिरिः-हिमालय । ६. मजीरम्-नपुर (मजीरं हंसकं शिञ्जिन्यं-अभि० ३।३३०) .