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सप्तदशः सर्गः
३३१ भरत के बाधु बाहुबली की दोनों आंखें .वलेोवन के समय से क्रमशः वैसे ही प्रता को प्राप्त होने लगी जैसे संक्रान्ति के समय उत्तरायण के सूर्य के दिन तथा भाग्यशाली योगी की समाधि के दिन अश्रान्त होते हैं, बढते चले जाते हैं। १६. मा देवा मम वदनं पातिदीनं , पश्यन्तु त्विति जगतीमिव प्रवेष्टुम् ।
न्यग्वक्त्रोऽवरजपुरो रथाङ्गपाणिष्पिाम्बूपचितविलोचनोथ तस्थौ ॥
'मेरा लज्जा से दीन बना हुआ यह मुंह देवता न देखें'—यह सोचकर जमीन में प्रवेश करने के इच्छुक की भांति नीचा मुंह किए चक्रवर्ती भरत अपने छोटे भाई बाहुबली के समक्ष खड़े थे। उनकी आंखें आंसुओं से छलछला रही थीं।
२०. ऊचेऽसौ भरतनपं गभीरसत्त्वो , भ्रातः ! कि मनसि विषादमादधासि ।
बालानामुचितमिदं त्ववेहि युद्धं , क्षत्राणां भवति हि युद्धमुग्रशस्त्रैः॥
गंभीर पराक्रम वाले उन बाहुबली ने महाराज भरत से कहा—'भाई ! मन में विषाद क्यों कर रहे हो ? दृष्टि-युद्ध आदि युद्ध तो बालकों के लिए उचित हो सकते हैं। क्षत्रियों का युद्ध उग्र शस्त्रों से ही होता है।'
२१. एतेनाहवललितेन चक्रपाणे !, नात्मानं किल जितकाशिनं ब्रवीमि ।
तल्लज्जामथ परिहाय जन्यलीलामाधेहि प्रथय यशश्च दोर्बलस्य ॥
'हे चक्रवत्तिन् ! मैं इस युद्ध-क्रीड़ा से अपने आपको युद्ध-विजयी नहीं मान सकता। तुम पराजय की उस लज्जा को छोड़कर युद्ध-क्रीडा को स्वीकार करो और अपने भुजबल के यश को फैलाओ।' .
२२. इत्युक्तः शरभ इवादधत् समन्तात् , संक्षोभं त्रिजगति संचचार घोरम् ।
क्ष्वेडामिः प्रलय इवोद्धताभिरेष , वात्याभिर्जलधिरिवोमिभिस्तताभिः ॥
बाहुबली के द्वारा इतना कहते ही अष्टापद की भांति क्षोभ को धारण करता हुआ भरत उद्धत सिंहनादों के द्वारा प्रलय की भांति तीनों लोकों में व्याप्त हो गया, जैसे तूफान से उठी हुई विशाल ऊर्मियों से समुद्र व्याप्त हो जाता है।
२३. संत्रस्यत्तदनु मृगरिव द्विपेन्द्र वल्लीभिस्त्विव दयिताभिराललम्बे।
कान्तः क्षमारह इव गह्वरो गभीरो, हर्यक्षरपि भुजगश्च नागलोकः ॥
१. जितकाशी-युद्ध में विजयी (जिताहवो जितकाशी-अभि० ३।४७०) २. जन्यलीला-युद्धक्रीडां, आधेहि-स्वीकुरु।