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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २४. इत्युक्त्वा दृशमरणांशुदुःप्रधर्षषटखण्डाधिपतिमुखेऽधिपत् क्षितीशः ।
कल्पान्ताम्बुधिलहरीमिवातितीवां , सामर्षा रिपुकुलकालरात्रिघोराम् ॥
यह कहकर बाहुबली ने सूर्य के किरणों की भांति दुष्प्रधर्ष, छह खंडों के अधिपति भरत चक्रवर्ती के मुह पर अपनी दृष्टि फैकी । वह दृष्टि प्रलयकाल के समुद्र की लहरों की भांति अति तीव्र, विजयेच्छा के उत्साह से युक्त क्रोध से उत्पन्न और शत्रुओं के कुल के लिए कालरात्री की भांति अत्यन्त घोर थी। .. १५. चक्राङ्गी सपदि ततो रुषातिताम्रां , रक्ताक्षध्वजभगिनी'त रङ्गभुग्नाम् ।
चिक्षेप क्षपितविपक्षिपक्षिपक्षामस्यास्ये हुतवहतेजसीव दीप्रे॥ .
तब चक्रवर्ती भरत ने सहसा क्रोध से अत्यन्त लाल, यमुना की तरंगों की भांति टेढीमेढी, शत्रु रूपी पक्षियों की पांखों को नष्ट करने वाली दृष्टि बाहुबली के 'अग्नि के तेज की भांति दीप्त', मुंह पर फेंकी। १६. सोत्साहं कथमपि सिंहपूणिताक्षं , पक्ष्मान स्तिमित'तरान्तरालतारम् । .
अन्योन्यं सुरनरकिन्नराद्भुताढ्य, त्वायामादजनि तदीयदृष्टियुद्धम् ॥ भरत और बाहुबली का दृष्टि-युद्ध कुछ प्रहरों तक चला। दोनों में उस समय भरपूर उत्साह था। उनकी आंखें सिंह की भांति एक दूसरे को घूर रही थीं। भीगी हुई पलकों के अन्तराल में ताराएं डूब रही थीं। देवता, मनुष्य और किन्नर-ये सब परस्पर में आश्चर्य प्रदर्शित कर रहे थे। , १७. आश्रान्तं जलमिव सारसं निदाघे , व्यालोकात्सरसिजचक्रवत्सहस्ये ।
तीक्ष्णांशोमह इव वासरावसाने , दग्द्वन्द्वं भरतपतेस्तरस्विनोपि ॥
जैसे ग्रीष्म ऋतु में धूप से तालाब का पानी सूख जाता है, पौष मास में कमल का समूह कुम्हला जाता है और दिन के अन्त में सूर्य की किरणें मन्द हो जाती हैं, वैसे ही पराक्रमी भरत की भी दोनों आंखें श्रान्त हो गईं। .
१८. तद्बन्धोनयनयुगं ततोवलोकात् , प्रौढत्वं कलयितुमाचरत् क्रमेण ।
संक्रान्ताविव रवेरुदीचामश्रान्तं दिनमिव पुण्यवत् समाधौ ॥
१. रक्ताक्ष:-महिषः, ध्वजा अस्ति यस्य स रक्ताक्षध्वजः-यमराजः, तस्य भगिनी इति
रक्ताक्षध्वजभगिनी-यमुना इत्यर्थः । २. भग्नम्-टेढी-मेढी (वृजिनं भङ गुरं भुग्नमरालं-अभि० ६।६३)। . ३. स्तिमित:-भीगा हुआ (तिमिते स्तिमितक्लिन्न'-अभि ० ६।१२८) ४. सहस्य:-पौष मास (पौषस्तषः सहस्यवत्-अभि० २।६६)