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सप्तदशः सर्गः
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भरत और बाहबली-दोनों के मस्तक पर किरीट थे । दोनों महान् प्रताप वाले थे । दोनों ने अपने शरीर पर कवच धारण कर रखे थे। दोनों एक ही जयलक्ष्मी का वरण करने के इच्छुक थे । इन दोनों के विषय में देवता परस्पर वितर्कणा कर रहे थे।
१०. कि वाऽयं भरतपतिर्बलातिरिक्तः , किं वाऽयं किल बहलोशिता बलाढयः ?
नो विप्रः क इह बली द्वयोरितीमावौह्येतां मुहुरपि दानवामरेन्द्रः॥
असुरेन्द्र और देवेन्द्र बार-बार यह वितर्कणा कर रहे थे कि इन दोनों में पराक्रमी कौन है, हम नहीं जानते। क्या भारत का अधिपति भरत बलवान् है या बहली देश का राजा बाहुबली बलवान् है ?
११. गीर्वाणस्त्रिदिवमपास्तमाजिदृष्टौ', पातालं भुजगवरैश्च वेश्म मत्यः ।
निःशेषेन्द्रियविषयाधिकस्तदेकोप्यूर्जस्वी नयनरसः किलाखिलानाम् ॥
युद्ध देखने के इच्छुक होकर देवताओं ने स्वर्ग, भुजंगमों ने पाताल और मनुष्यों ने घर छोड़ दिए । समस्त इन्द्रियों के विषयों में अधिक ऊर्जस्वी अकेला नयन-रस उन सब में नाच रहा था।
१२. इत्युच्चभुजयुगलीपराजितेन्द्रो, वर्षेन्द्र बहलीपतिर्जगाद गर्वात् ।
देवानां स्मर बलकिङ्करीकृतानां , प्रस्तावे समयति यः स हि स्वकीयः॥
अब अपने भुज-युगल से इन्द्र को भी पराजित करने वाले बाहुबली न गर्व के साथ बाढ़-स्वर में भरत से कहा—'अपने बल के प्रभाव से सेवक बनाए हुए देवताओं का तुम स्मरण करों। क्योंकि जो समय पर काम आए, वही अपना होता है।'
१३. जानीहि स्फुटमिति भूमिरस्तिवीरा, षट्खण्डोद्दलनविधौ ससंशयं हृत् ।
अस्त्येवं क्षितिप ! तवोल्लसत्स्मयत्वात्तन्मातस्तुदतितरां न चान्यदेव ॥
'राजन् ! तुम यह स्पष्ट रूप से जान लो कि भूमी पराक्रमी वीरों के अधीन ही रही है । तुम्हारे बढ़ते हुए अहं को देखकर तुम्हारे षट्खंड-विजय के प्रति मेरे मन में संदेह हो रहा है । यह संदेह ही मुझे पीड़ित कर रहा है, दूसरा कुछ नहीं।'
१. आजिंदृष्टी-युद्धदर्शने। २. वर्षेन्द्रम्-भरतम् । ३. देवानां स्मर-स्मृत्यर्थदयेशां वा-इति सूत्रण देवानां स्मर, देवान् स्मर वा। ४. अस्तिवीरा-वीरवती।