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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् विशाल आकाश देव-विमानों की श्रेणी से संकीर्ण हो गया। सूर्य के रथ में जुते हुए घोड़े भयभीत हो गए। फिर भी सूर्य का सारथि घोड़ों की मोटी लगामों को स्वयं हाथों में दृढ़ता से थामे, रथ की रक्षा करने में समर्थ हो रहा था। ५. शेषाहे ! त्वमपि गुरुं मदीयभारं , वोढासि द्रढिमजुषाद्य मस्तकेन ।
क्षोणीति क्षितिपपदप्रहारघोषैर्जल्पती स्फुटमिव सर्वतो बभूव ॥. उस समय चारों ओर से राजाओं के पद-प्रहार के घोषों से भूमी यह स्पष्ट कह रही थी-'हे शेषनाग ! आज तुमको भी अपने शक्तिशाली मस्तक पर मेरे इस गुरुतर भार को वहन करना होगा।'
६. युद्धेऽस्मिन्नचलवरा निपातिनोमी , पाथोधिः स्थितिमपहास्यति प्रकामम् ।
स्थेयस्त्वं न सुरगिरे ! त्वयाप्यपास्यं , प्रावोचन्निति निनदा इवानकानाम् ॥
दुन्दुभियों के शब्द मानो यह कह रहे थे कि इस युद्ध में ये सारे पर्वतं गिर पड़ेंगे। समुद्र अपनी मर्यादा को बिल्कुल ही छोड़ देगा । हे मंदर पर्वत ! तुम्हें स्थिरता नहीं छोड़नी है।
७. न्यग्लोकात् समुपगतः कवे विनेयः , वैपुल्यं वियत इयद् व्यतय॑तेति ।
पूज्यत्वं क्वचिदपि चास्य दृश्यते नो , सम्भाव्यं श्रवणगतं न दृष्टिपूतम् ॥
नीचे लोक से समागत शुक्र के शिष्य दैत्यों में आकाश की इतनी विपुलता की वितर्कणा करते हुए कहा-'आकाश की पूजनीयता कहीं भी दृग्गोचर नहीं हो रही है। जो सुना हुआ होता है उसकी संभावना ही की जा सकती है। आकाश दृष्टिपूतदृश्य नहीं है इसलिए यह कहीं भी पूज्य नहीं है।'
प. उत्फुल्लत्रिदशवधूविलोचनाब्जैराकाशं कुसुमितमुत्फलं स्तनैश्च ।
सामोदं सपरिमलैस्तदीयदेहैः , किं न स्यात् सपदि तदा समञ्जसञ्च ?
समूचा आकाश देवांगनाओं के विकसित नयनरूपी कमलों से पुष्पित, उनके स्तनों से फलित और उनके सुगंधित देहों से सुरभित हो गया। उस समय सहसा सामञ्जस्य कैसे नहीं होता?
६. कोटीराङ्कितशिरसौ महाप्रतापौ , सन्नाहाकलिततन उभावितीमौ ।
एकां यज्जयकमलां वरीतुकामावन्योन्यं त्रिदशगविवकितौ च ॥
१. कवि:-शुक्र (उशना भार्गवः कविः-अभि० २।३३)