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२.
सप्तदशः सर्गः
स्वः सिन्धोः पुलिन रजांसि पावयन्तौ पन्न्यासैः समरभुवं प्रकीर्णपुष्पाम् । आयात स्थितिमिव पूर्वपश्चिमान्धी, तौ बाहूल्बणलहरीभाराभिरामौ ॥
अपने पद-न्यास से गंगा के पुलिन के रजकणों को पावन करते हुए, भुजारूपी स्पष्ट लहरों से सुन्दर भरत और बाहुबली, दोनों फूलों से ढकी हुई रणभूमी में उसी प्रकार स्थित हो गए जैसे पूर्वीय और पश्चिमी समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित हो जाते हैं ।
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३.
एताभिर्वृषभत नजरूपलक्ष्मीमन्वेष्टुं कलहविलोकनोत्सुकाभिः । पातालाद् भुजगवधूभिरूर्ध्व लोकाद्द वीभिः कबरितमन्तरीक्षमासीत् ॥
युद्ध को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक पाताल लोक से भुजंगवधूएं और ऊर्ध्वलोक से देवियां ऋषभ के पुत्रों की रूप-लक्ष्मी का अन्वेषण करने के लिए वहां आईं और समूचा आकाश उनसे विविध वर्णवाला हो गया ।
कामिचि विबुधवधूभिरग्रजोयं, जेता द्रागयमनुजश्च तौ तदानीम् । औह्येतामिति गगनाङ्गलम्बिनीभिर्दृग्नीराजनविधिना 'टितानुरागम् ॥
आकाश में स्थित कुछ देवियों ने उन दोनों के विषय में तब यह वितर्कणा की कि यह बड़ा भाई भरत शीघ्र ही विजित होगा और कुछ ने यह वितर्कणा की कि छोटा भाई बाहुबली विजित होगा । उन देवियों ने अपनी दृष्टि की 'नीराजन - विधि' से अपने अनुराग को व्यक्त किया ।
४. आकाशे freefaमानधोरणीभिः, संकीर्णे विपुलतरेऽपि सूरसूतः' ।
नाशक्तः स्वमपि रथं त्रसत्तुरङ्ग, संत्रातुं करनिबिडीकृतोरुरश्मिः ॥
१. विजया दशमी के दिन दिग्विजय यात्रा के पहले शान्त्युदक छिड़का जाता है, उसे 'नीराजन - विधि' कहते हैं । (अभि० ३।४५३)
२. सुरसूतः - सूर्य का सारथि ( सूरसूतस्तु काश्यपि : - अभि० २।१६ )
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