SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कथावस्तु चक्रवर्ती भरत और पराक्रमी बाहुबली-दोनों रणभूमी में आ गए। सारा आकाश देवताओं से भर गया । सर्व प्रथम 'दृष्टियुद्ध' प्रारंभ हुआ। यह कुछ प्रहरों तक चला । भरत इसमें हार गए। फिर 'शब्दयुद्ध' प्रारंभ हआ। दोनों के सिंहनादों से सारा विश्व प्रकंपित हो उठा। इसमें भी विजय बाहुबली की ही हुई । उसके बाद 'मुष्टियुद्ध' प्रारंभ हुआ। भरत ने बाहुबली की छाती पर मुष्टि से प्रहार किया। बाहुबली का शरीर उससे अत्यन्त पीड़ित हो गया। वे क्रुद्ध होकर सर्प की भांति फुफकारने लगे। उन्होंने भरत को उठाकर आकाश में फेंक दिया। भरत आकाश में इतने दूर उछले कि दीखने बंद हो गये। बाहुबली का मन अनुताप से भर गया । उनका मन नानाविध संकल्पों में उलझ गया। इतने में ही भरत आकाश-मार्ग में दीख पड़े । बाहुबली ने उन्हें अपनी भुजाओं से झेल लिया। भरत क्रुद्ध हो गये । अब अन्त में 'दण्डयुद्ध' की बारी थी। दोनों ने लोहदंड हाथ में थामा और एक दूसरे पर प्रहार करना प्रारंभ कर दिया । भरत के तीव्र प्रहारों से बाहुबली घुटने तक भूमी में धंस,गये। उन्होंने दूसरा प्रहार करना चाहा। बाहुबली संभल चुके थे। उन्होंने भरत पर प्रहार किया और भरत गले तक भूमी में धंस गये। भरत घबड़ा गये। उनकी आँखें भयभीत थीं। बाहुबली ने सभी युद्धों में विजय प्राप्त करली। देवताओं ने विजय की दुंदुभी बजाई। फिर भी भरत अपनी पराजय स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए । भरत ने कहा-तू अब भी मेरा आधिपत्य स्वीकार करले, अन्यथा मैं इस चक्र के द्वारा तुझे भस्म कर दूंगा। बाहुबली का रोष बढ़ा और वे मुष्टि-प्रहार से भरत को मारने दौड़े। उनकी प्रचंडता को देख देव घबरा गए। वे बाहुबली को प्रतिबोध देने के लिए आए। उन्होंने उन्हें समझाया। बाहबली का रोष शांत हुआ। उन्होंने अपनी मुष्टि का प्रयोग केश-लुंचन में किया और महाव्रतधारी मुनि बन गये। भरत की आंखें डबडबा आईं। उन्होंने बाहुबली की स्तुति की। किन्तु 'बाहुबली शान्त खड़े रहे। __ भरत वहां से मुड़े। बाहुबली के पुत्र को बहली प्रदेश का आधिपत्य सौंपकर भरत अयोध्या लौट आए।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy