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पञ्चदशः सर्गः
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सुभटों को युद्ध के लिए वैसे ही प्रोत्साहित कर रहे थे जैसे पार्वती का पुत्र कार्त्तिकेय देवताओं को प्रोत्साहित करता है ।
३६. अत्यन्तोद्दीप्रकल्याणमय मण्डनमण्डितैः । कुञ्जरैः सतडिन्मेघा गतिमान् शैवली कचैः ॥
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३७. निपतद्गजमुक्ताभिः क्वचिद् मौक्तिकवीथिमान् । रत्नवान् भग्नकोटीररत्नैर्वक्त्रैश्च शुक्तिमान् ॥ ३८. वोहित्यवान्' रथस्तोमैरधरोष्ठैः प्रवालवान् । पाठीनवान्' मुखाद्य मनवान् नृकरांहिभिः ॥ ३६. पतत्रिपत्र निर्ह्रादिर्गाभितातोद्य निःस्वनैः । घोषवान् वाहिनीवृन्देरनाकलितगाधवान् ॥ असृक् कल्लोलिनीनाथः प्रावर्तत यदृच्छया । कल्पान्ता रणे तत्रायोध्यातक्षशिलेशयोः ॥
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— पञ्चभिः कुलकम् ।
अयोध्या के अधिपति भरत और तक्षशिला के अधिपति बाहुबली के बीच होने वाले इस प्रलयंकारी रण में रक्त का समुद्र यथेष्ट रूप में प्रवृत्त हो गया । उस समुद्र पर अत्यन्त दीप्तिमान् स्वर्णमय मंडनों से विभूषित कुंजरः रूपी विद्युत् युक्त मेघ मंडरा रहे थे । उस समुद्र पर सुभटों के केश रूपी शैवाल तैर रही थी। हाथियों के कुंभस्थलों से गिरनेवाली मुक्ताओं से कहीं-कहीं वह समुद्र मौक्तिक मार्ग वाला, सुभटों के टूटे हुए मुकुटों से निकले हुए रत्नों से रत्नवान् और मरे हुए सुभटों के मुखों से शुक्तिमान हो रहा था । उसमें रथ रूपी जहाज चल रहे थे । सुभटों के अधर और ओष्ठ प्रवाल की तरह लग रहे थे । उनके मुख आदि अंग पाठीन मत्स्य जैसे प्रतीत हो रहे थे । वह मनुष्यों के हाथ और पैरों के कारण मछलियों वाला लग रहा था । चलने वाले बाणों तथा युद्ध-वाद्यों के शब्दों से वह घोषवान् और सेनाओं के समूह से अगाध लग रहा था ।
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अथ चक्रधरानीकं नीतं बाहुबलेर्बलैः । मन्दतां तरणेस्तेज, इव हेमन्तवासरैः ॥
बाहुबली की सेनाओं ने चक्रवर्ती भरत की सेना को मन्द कर दिया, जैसे हेमन्त ऋतु के दिन सूर्य के तेज को मंद कर देते हैं ।
१. वोहित्थं - जहाज ( वोहित्यं वहनं पोतः - अभि० ३ । ५४० ) २. पाठीन :- मत्स्य ( पाठीने चित्रवल्लिक:- अभि० ४ ४११ ) ३. असृक् — रक्त (शोणितं लोहितमसृग् अभि० ३।२८५)