SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ७६ 'चतुर्थः सर्गः ३८. विहिते मनसि त्वयायितुं' , स दरीद्वारकपाटसंपुटम् । उदघाटयदुनतेजसा , त्रिदशो' यश्चलयेद् भुवं भ्र वा ॥ देव ! वहां आकर आपने जैसे ही वैताढ्य गिरि की कन्दरा के द्वारों को खोलने का संकल्प किया, वैसे ही उस स्थान का अधिष्ठाता देव, जो अपनी परम तेजस्वी भ्रूभंगिमा से सारे लोक को प्रकंपित कर देता है , उपस्थित हुआ और उसने कन्दरा के द्वार के कपाट खोल डाले। ३६. निचखान तवाभिधाङ्कितान् , विजयस्तम्भभरानहं विभो !। सुरशैवलिनीतटान्तरेष्विव कोलान् भवदीयकोत्तिगोः ॥ प्रभो ! मैंने गंगानदी के तंटों के बीच आपके नामांकित विजयस्तम्भ स्थापित किए। वे आपको कीर्तिरूपी गाय के लिए खूटे का काम कर रहे हैं । ४०. निधयोऽपि तवैव दृश्यतां , गतवन्तः सुकृतरिवाहृताः । सुरसिन्धुमनोरथा इव प्रचितश्रीभरभासुरान्तराः ॥ प्रभो ! उपचित लक्ष्मी के समूह से अन्तराल तक प्रकाशित होनेवाली निधियां तो आपको ही दृष्टिगोचर हुईं । मानो कि वे आपके पुण्यों से खींची हुई आई हों अथवा गंगा के मनोरथ आप तक पहुंचे हों। ४१. इति भारतवर्षपर्षदि , प्रभुतामाप्तवतः प्रभोऽधुना। अभवत् तंव काचिदूनता , धुसदां पत्युरिवाधिकश्रियः ॥ प्रभो ! इस समय आप भरतक्षेत्र की परिषद् में प्रभुता प्राप्त और इन्द्र की भांति अधिक लक्ष्मी वाले हैं । आपके कोई कमी नहीं है। ४२. न सुरो न च किन्नरो नरो, न च विद्याधरकुञ्जरोऽपि न । तव येन निदेशनीरज", शिरसाऽधार्यत नो जगत्त्रये ॥ १. आयितुम्-आगन्तुम् । २. त्रिदश:-देव। ३. निचखान-अध्यारोपयम् । अत्र णबादे: उत्तमपुरुषस्य एकवचनम् । ४. प्रचित.........--प्रचितः-पुष्टः, यः श्रीभरो-लक्ष्म्यातिशयस्तेन भासुरं-दीप्रमन्तरा___ मध्यं एषाम्-ते निधयः । ५. निदेशनीरज-आज्ञाकमलम् ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy