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________________ "७८ .... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३३. त्वयि दिग्विजयोद्यते प्रभो!, विदधे कश्चन् चापचापलम् । विनिवेदयितुं बलं तवेत्ययमारक्षति नः स्वसेविनः॥ “प्रभो ! जब आप दिग्विजय के लिए उद्यत हुए थे तब कुछ राजाओं ने अपना बल आपको ज्ञापित करने के लिए धनुष्य की चपलता की थी। उन्होंने सोचा कि यह चक्रवर्ती हमें “अपना सेवक मान कर हमारी रक्षा करेगा। ३४. प्रतिपक्षवनदुमावलीपरिदाहाय दवायितं तदा। ... भवता पबनायितं मया, तदनुस्थातुमलं न कोप्यभूत् ॥ "प्रभो । शत्रुरूपी वन-वृक्षावली को दहन करने के लिए जब आप दवाग्नि के समान हुए तब मैंने उसको प्रज्वलित करने के लिए पवन का काम किया था। उसके बाद कोई भी शत्रु वहां ठहर नहीं सका। ३५. रिपुवंशकृते तवाग्रतोऽहमभूवं परशु पोत्तम !।। ___ समुवेष्यत एव किं रवेररुणोऽग्ने न भवेत् तमोहते ? "नपोत्तम ! शत्रुओं के वंश को नष्ट करने के लिए आपके आगे मैं परशु बना रहा। • क्या उदीयमान सूर्य के आगे उसका सारथी अरुण अन्धकार नष्ट नहीं करता ? ३६. प्रभवं जितकाशि'शेखरस्तवतेजोभिरहं पदे पदे । तरणेरिव दीप्तिभिशं , ज्वलति ध्वान्तहते धनञ्जयः ॥ 'प्रभो ! मैं आपके तेज के प्रभाव से स्थान-स्थान पर विजयी-शेखर होता रहा है, जैसे सूर्य की रश्मियों से अग्नि अंधकार-हरण के लिए अधिक प्रज्वलित होती है। ३७. विरचय्य भवन्तमुच्चकैः , समरं द्वादशहायनावधिम् । विनमिनमिना सहाऽनमद् , रिपवो हि प्रबला नताः श्रिये ॥ प्रभो ! आपने बारह वर्षों तक नमि और विनमि के साथ घोर संग्राम कर उन्हें नत कर दिया, जीत लिया । देव ! प्रबल शत्रुओं को नमाना राजाओं की शोभा के लिए होता है। १. दवायितं-दव इव आचरितम् । २. पवनायितं-वायुवदाचरितम् । ३. जितकाशी युद्ध में विजयी (जितावहो जितकाशी-अभि० ३।४७०) ४. धनञ्जयः-अग्नि (धनञ्जयो हव्यहविर्हताशन:-अभि० ४।१६३)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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