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________________ चतुर्थः सर्गः मैं भाई का वध कर पिता के पवित्र कुल को कलंकित नहीं करूंगा | कौन व्यक्ति अपने सुधा धवलित घर को धुएं के समूह से मलिन करना चाहेगा ? २६. अजितेऽपि जितेऽपि बान्धवे मम वाच्यं स्फुरतीति भूतले ।! कलिताखिलभूमिभृन्नयो, भरतेशोऽकृत बन्धुविग्रहम् ॥ ; भाई को न जीतने पर या जीत लेने पर भी सारे संसार में मेरी निन्दा होगी कि समस्त राजाओं की नीति को जानने वाले भारत के अधिपति भरत ने भाई के साथ संग्राम किया । ३०. इति वादिन एव भूविभोः, समदोऽभ्येत्य सुषेण सैन्यराट् । करचुम्बित भालपट्टिकः, पुरतः शिष्य इवास्त सद्गुरोः ॥ महाराज भरत इस प्रकार बोल ही रहे थे कि सुप्रसन्न सेनापति सुषेण वहाँ आया और हाथ जोड़कर भरत के सामने बैठ गया जैसे सद्गुरु के आगे शिष्य बैठता है । ३१. मगध' ध्वनि मिश्रमन्मथध्वज नादः प्रथमं निषिद्ध्यताम् । चमराञ्चितवारवर्णिनीकरयुक्कङ्कणसंरवोद्धतः ॥ ३२. ७ महाराज ! पहले आप उस नाद को बंद करायें जो कि मंगल पाठक व्यक्तियों की ध्वनि से मिश्रित होकर बाजे से निकल रहा है और जो चंवर डुलाने वाली वेश्याओं के हाथों के कंकण से उठनेवाली ध्वनि से उद्धत हो रहा है । श्रथ भारतवासव ! श्रुती, गिरि' मे मन्त्ररसैकसद्द्मनि । विनिधेहि गिरिः स्वकन्यके, इव सारस्वततीरसंमुखे ॥ 'भारतेश ! जैसे-पर्वत अपनी कन्याओं ( गंगा-यमुना ) को समुद्र के तीर के अभिमुख भेजता है, वैसे ही मैं मेरी मनन योग्य वाणी आपके कानों के तट पर प्रेषित कर रहा हूँ । आप उस पर कान दें - ध्यान से सुनें ।' रसैकवसतौ । ६. विनिधेहि — स्थापय । १. मगध: - मंगल - पाठक (मांगधो मगधः - अभि० ३।४५६) २. मन्मथध्वज: - बाजा (वाद्यं वादित्र मातोद्यं तूर्य तूरं स्मरध्वजः - अभि० २।२०० ) ३. श्रुती - कर्णौ । ४. गिरि – भारत्याम् (वाणी में) ५. मंत्ररसैकसद्मनि – यह गिरि का विशेषण है । कि विशिष्टायां गिरि-मंत्र .. - आलोचन...
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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