________________
भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २४. अविमृश्य करोति यः क्रियां , बहुधा सोऽनुशयीत' तत्फले ।
युधि धन्वनि नामिते बलात् , किल भग्ने विदधीत कि बली ?
जो बिना सोचे-समझे प्रवृत्ति करता है, उसे परिणाम काल में (फल के समय) बहुत बार पश्चात्ताप करना पड़ता है । बलशाली योद्धा का धनुष्य यदि हठपूर्वक तानने पर टूट जाए तो भला वह युद्ध में क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं।
२५.
अहमेव करोमि दुर्नयं , यदि तहि प्रकरोति को नयम ।। शुचये सुरवाहिनी'जलं , जगतामस्ति तदेव साम्प्रतम् ॥
यदि मैं ही अन्याय कर रहा हूँ तो दूसरा कौन न्याय करेगा? लोगों के लिए गंगा का जल शुद्धि के लिए है। यही उसके लिए उचित है।
२६. नृपनीतिलताऽधिरोपिता, जगवावाल पदे मयाद्य सा।
बलिबन्धुवधैकपशु ना, कथमुच्छिद्यत एव मूलतः ॥
मैंने जगत् की क्यारी में राजा की नीति रूपी लता का आरोपण किया था। किन्तु आज मैं बलशाली भ्रातृघातक पशु से उसे जड़ से कैसे उखाड़ दूं ?
२७. सुलमा हरिणीदृशः श्रियः , खलु राज्यस्थितयोप्यदुर्लभाः ।
न हि बन्धुरवाप्यते पुनर्विधुरे' तिष्ठति यो वृतीयितुम् ॥
लमाः।
इस संसार में सुन्दर स्त्रियाँ और ऐश्वर्य सुलभ है। राज्य की स्थिति भी दुर्लभ नहीं है। किन्तु वैसा भाई मिलना कठिन है जो आपत्-काल में अपने बन्धु को घेरकर बैठ सके।
२८. न हि तातकुलं कलक्यते , विशदं बन्धुवधेन सांप्रतम् । .
कुरुते निलयं सुधामयं , किल को धूम्रभरेण कश्मलम् ?
१. अनुशेते—पश्चात्तपति। २. सुरवाहिनी-गंगा नदी ।। ३. साम्प्रतं-उचितं । ४. आवालं--पौधे के चारों ओर पानी ठहरने के लिए बनाया गया गढा-(स्यादालवालमावाल____ मावाप: स्थानकं च सः-अभि० ४।१६१) ५. विधुरे--कष्टे । ६. वृतीयितुम्--वृतिरिवाचरितुम् ।